
खंडहर 
खंडहर हुआ महल अपने 
बोझिल अक्स को 
मूक आँखों से रहा निहार 
जहाँ थी  कभी यौवन  
भरे उपवन की बहार ,
आज खोखली दीवारों से 
झरती रेत की तरह 
 मनुहार  
कीट पतंगों , गले सड़े कीड़ों 
का भरा अम्बार 
सुगन्धित सीलन भरी मिट्टी 
भी देने लगी दुर्गन्ध 
ठहरे पानी में जमी काई की 
छटपटाहट से तन बीमार ,
पाप - पुण्य , आस्था - अनास्था 
की सीमा में उलझ 
मंदिर की मूर्तियाँ धूल भरे
 जालों में  झुलस  
देवता भी जहाँ करते 
थे कभी वास 
वहीँ  खंडहर हुई  सुन्दरता की 
कुरूपता में बुझे स्वास  ,
जहाँ तक  थी कभी 
सड़क चमकदार 
वहाँ अब है संकरी पगडण्डी 
खतरें अपार  
कौन मुसाफिर  जाने का 
करेगा दुसाहस ? 
 
 
Hi alka ji aap ki kahaniya or geet kafi ache he.
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