Friday 17 February, 2012

जन्मदिवस का उपहार


जन्मदिवस का उपहार
करती जब अंगीकार
तुम होते तो बात
कुछ और होती जैसे
नील गगन झुक गया धरती पर
माँग का सिन्दूर जैसे
सूरज की लालिमा आर- पार
इन्द्रधनुष लिपटा गगन से
वैसे गले का हार
बालों का गजरा जैसे
पक्षी उड़ रहे कतार
आँखों का काजल जैसे
 बादल घुल गए बन्दनवार
तुम होते तो बात
कुछ और होती

कैसे ना याद करूँ
उन अन्तरंग पलों को
जब तुम्हारी आत्मा में
आत्मा मेरी हुई विलीन
तुम्हारी बाहों में
हुई औरत पूर्ण रूपेण
तुम्हारे होंठों से पिघले
मेरे होंठ
तुम्हारे स्पर्श से पुलकित
हुई देह
कैसे ना याद करूँ
उन अन्तरंग पलों को

जब तुम नहीं होते
अपने सीने
से चिपका लेती हूँ तुम्हारे शब्द
तुम्हे छू आई हवा से
सहला लेती हूँ अपने केश
तुम्हारे पाँव की धूल से
भिगो लेती हूँ अपनी रूह

जब जाती हूँ छत पर
तो सोचती हूँ
काश तुम होते मेरे पास
सर्दी की इस नर्म धूप में अपनी
गर्म साँसों से तुम्हारे बदन
को सहलाती
तुम्हारे चरणों के कणों को
अपने होंठों से चूमती
अपने माथे पर लगाती
हथेली के पसीने से
तुम्हारे श्याम वर्ण को पोंछती
जब निहारती खुद को आईने में
तुम मेरे पीछे खड़े- खड़े
मुस्काते

जब जाती हूँ रसोई घर में
बनाती हूँ जब गाजर हलवा
हृदय रो पड़ता है
तुम्हे बहुत पसंद है ना
खिलाती अपने हाथों से
तुम्हारे बिन वो मीठा जहर
लगता है
बस तुम्हारी यादों से लिपटी रातें
मीठी लगती हैं

जब जाती हूँ रात को आँगन में
गर्मी की खुश्क रातों में
चारपाई पर दिख जाते हो
फैली है ऊपर मच्छरदानी
आती हूँ चुपके से
कहीं तुम जग ना जाओ
आँचल की हवा से तुम्हारे
माथे का पसीना सुखाती

किस- किस जगह तुम दिखाई
नहीं देते
हर जगह तो तुम्हारे स्पर्श से
गुद गुदाती
तुम्हारे प्यार से लिपटा मेरे
जन्मदिवस का उपहार



Wednesday 15 February, 2012

कटी पतंग


मकर संक्रांति के दिन अहमदाबाद के मणिनगर इलाके में कई सारी पतंगे आकाश में बहुत ऊपर तक उड़ रही थी। आकाश रंगबिरंगी पतंगों से भरा पड़ा था जो कि कई बार एक दूसरे में उलझते-उलझते बच जाती तो कभी एक दम से बल खा कर डगमगा जाती । हर पतंग उड़ाने वाला एक दूसरे की पतंग काटने पर लगा था । आकाश में मानो कोई मेला लगा हो । सबकी नजर एक बहुत ऊंचाई पर उड़ने वाली एक सुन्दर सी आसमानी रंग की पतंग पर थी कि उसे काटे और फिर दबोच कर पकड़ ले. यह सारा दृश्य उर्वशी छत पर खड़ी काफी देर से देख रही थी ।

एक दूसरे की पतंग को काटने की होड़ के नज़ारे को देखते- देखते वह अपने अतीत की यादों में खो गई।

कितना खुशहाल बचपन था उसका ! बड़े- बड़े सपने वह संजोया करती थी । जितनी वह नटखट और बातूनी थी उससे कई गुना ज्यादा पढ़ने में भी होशियार थी । उसे लगता था कि दुनिया उसकी मुट्ठी में है और कुछ भी पा लेना उसके लिए बहुत आसान होगा। उसके माता -पिता का सीना गर्व से फूल जाता था अपनी होनहार बेटी को देखकर । मगर पता नहीं किस्मत उसे कहाँ को लेकर जा रही थी जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। बचपन से ही तरह- तरह की बीमारियाँ झेलते-झेलते वह इस कदर कमजोर हो गई कि जैसे-तैसे उसने कालेज तक की पढ़ाई कर ली मगर अपने मन मुताबिक़ मुकाम हासिल न कर सकी। यह कमी उसे हर वक्त खलती रहती. पर वह कर भी क्या सकती थी। .पढ़ाई का समय तो पार हो चुका था. फिर पीछे लौटना संभव नहीं था. कालेज करने के बाद उसने जॉब ओरिएंटेड़ कोर्स के लिए पब्लिक रीलेशन का विषय चुना और अच्छे अंकों से उतीर्ण भी कर लिया . इसी दौरान उसे धीरज से प्यार हो गया । घर में इस बात पर घोर विरोध होने के बावजूद भी उसने धीरज से प्रेम विवाह कर लिया । उसे क्या पता था कि शादी के बाद आने वाली पारिवारिक समस्याएँ इस कदर बढ़ेगी कि वह न केवल भावनात्मक बल्कि शारीरिक रूप से और भी कमजोर होती चली जाएगी । उसके कृशकाय चेहरे को देखकर अक्सर जान पहचान वाले कहते थे , " उर्वशी को पता नहीं क्या हो गया है ? दिन रात पता नहीं किस चिंता में रहती है . इसका शरीर कितना सूख गया है . चेहरे पर जरा भी रौनक नहीं है . "

वह क्या उत्तर देती ? वह भीतर ही भीतर खून के आंसू पी जाती । रात दिन माता- पिता को याद करके रोती रहती। इधर शुरू से ही उपेक्षा का भाव यहाँ तक कि शादी की महंदी हाथों से अभी उतरी भी नहीं थी कि उसे घर से बाहर ठिठुरती सर्दी में पूरी रात फर्श पर गुजारनी पड़ी, पर किसे उसकी परवाह थी ? जीने की उसकी इच्छा जैसे मर गई थी।

उसकी उसमें क्या ग़लती थी ? उसने तो केवल सास से छोटे-मोटे घरेलु मामलों को लेकर जिरह की थी। बदले में क्या मिला धीरज की डांट-फटकार , उपेक्षा और तिरस्कार । ऊपर से आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह अपनी मन पसंद का छोटा -मोटा सामान , कपड़े आदि तो दूर की बात कभी- कभी तो दवाई भी खरीद नहीं पाती थी । उसे हर चीज के लिए सास के आगे हाथ पसारने पड़ते थे.। धीरज इतना गैर जिम्मेवार था कि कभी उसकी जरूरतों को समझता ही नहीं था । इतना ही नहीं, उसके माता- पिता जब भी किसी दिन- त्योहार पर उसे मिलने आते तो सास के ताने सुनने को मिलते और अपनी इतनी होनहार लड़की को इस तरह के माहौल में देखकर उनकी आँखों में आंसू आ जाते। फिर भी कभी उसने अपने माता- पिता को धीरज की कमजोरियों के बारे में नहीं बताया था , बताती भी किस मुँह से उसने खुद ही तो अपने आप को कुएं में धकेला था । वह हर कीमत पर समझौता करना चाहती थी ताकि दुनिया वाले कहीं उसकी खिल्ली न उडाए । सब कुछ सहते हुए भी वह दुःख के भाव कभी अपने चेहरे पर आने नहीं देती थी , क्योंकि वह बचपन से खुद्दार थी । परन्तु धीरज की चुप्पी उसे भीतर ही भीतर तोडती रहती । वह उर्वशी को तिल- तिल मरते देख सब कुछ चुप-चाप सहता रहता। उसकी सास भले ही उससे कितना भी दुर्व्यवहार करती परन्तु उसके मुँह से एक शब्द भी न निकलता यहाँ तक कि वह उर्वशी को सांत्वना के दो बोल तक न कह पाता। उर्वशी को अपने चारो (चारों) तरफ अँधेरा ही अँधेरा नजर आता । धीरज किसी तरह भी उर्वशी की भावनाओं को समझ न पाता । धीरज के दिमाग पर तो हर समय उसके माता - पिता का डर समाया रहता . उसके पिताजी ने अपनी कंपनी में धीरज की नौकरी क्या लगवा दी थी बस हर समय उसी का अहसान गिनाते रहते। धीरज की तनख्वाह उस समय मात्र चार हजार रुपये थी और वो पैसे भी उसकी सास रख लेती और उसमे से मात्र २०० रुपये वो उर्वशी को हर महीने देती जैसे कि वह कोई बंधुआ मजदूर हो । अगर उर्वशी के माता - पिता धीरज की किसी तरह मदद करना चाहते तो वह उर्वशी से बहुत बुरा भला कहता , " क्या मै तेरे माँ - बाप का गुलाम हूँ , तुम तो यही चाहती हो कि मै तुम्हारे घर वालों के तलवे चाटू . जितना मै कमाता हूँ उसी में गुजारा नहीं कर सकती तो ये सब शादी से पहले क्यों नहीं सोचा ? "

इतना ही नहीं वो उर्वशी के माता- पिता को गंदी- गंदी गालियाँ भी निकालता । उर्वशी क्या कह पाती बस सब कुछ चुप चाप सुन लेती और तकिये में मुँह दबा कर रोती रहती क्योंकि अगर धीरज को जरा भी पता चलता कि वह रोना- धोना कर रही है तो उसे और खरी खोटी सुनाता कि अगर वह यहाँ पर दुखी है तो यहाँ से चली क्यों नहीं जाती । जिस इंसान के हाथ बहुत विश्वास से उसने अपने जीवन की डोर दी थी वो उसे एक दिन भी ढंग से न संभाल कर रख सका ।

तभी वह आसमानी पतंग जैसे ही कटी सब और शोर सुनाई देने लगा और वह कटकर ऊँचाई से लहराते- लहराते एक बहुत ऊँचे पेड़ पर आकर अटक गई ।

उर्वशी दिन रात एक ही प्रार्थना करती कि भगवान् काश उसकी कहीं नौकरी लगवा दे. इस बारे में एक बार उसने अपने पिता से बात की तो उन्होंने अपने एक जान पहचान वाले के स्कूल में उसकी नौकरी लगवा दी .

उसके पिता जी ने उसे फोन करके सूचना दी , " उर्वशी, मकंदपुर में मेरे एक परिचित ने नया स्कूल खोला है वहाँ पर तुम्हारी नौकरी की बात मैंने कर ली है और वह जगह तुम्हारे घर से नजदीक भी पड़ेगी उसके लिए तुम मेरी लूना ले जाओ ,तुम्हे आने जाने में दिक्कत नहीं होगी।"

उर्वशी की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था । वहाँ पर जाकर उर्वशी ने सारी बात पक्की कर ली और अगले दिन से ही काम पर आने की बात और वेतन २००० निश्चित हो गया ।

उर्वशी को चैन की सांस मिली कि चलो कुछ देर तो वह घर से बाहर सकून के बिता सकेगी । वह सुबह घर का सारा काम जल्दी उठ कर निबटा लेती।.बचपन की उसकी कुछ कर दिखाने की इच्छा और समाज में अपनी पहचान बनाने की इच्छा फिर बलवती हो गई। बस, उसे लगता कि भगवान् उसे एक मौका देदे तो वह फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखेगी।

उसने जब यह बात धीरज को बताई तो उसके भावहीन चेहरे पर कोई भाव नहीं आए । उसकी नीरस प्रवृति से वह अच्छी तरह वाकिफ हो गई थी, इसलिए किसी तरह की प्रतिक्रिया की उसे कोई उम्मीद भी नहीं थी ।

सैंट जेवियर स्कूल की यह नई ब्रांच खुली थी जहाँ पर उसे दूसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाना था । उर्वशी बहुत मेहनती थी उसने अपनी तरफ से स्कूल की उम्मीदों पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की । एक दिन स्कूल के प्रिंसिपल ने उसे अपने कक्ष में बुलाया और कहने लगे , " उर्वशी , बच्चों द्वारा तुम्हारी शिकायतें आ रही है कि तुम उनसे इंग्लिश में बात नहीं करती हो। तुम्हे पता है कि हमारे कानवेंट स्कूलों में हिंदी में बात करने की सख्त मनाही है। "

उर्वशी अपनी सफाई देते हुए बोली , " नहीं सर , मै तो इंग्लिश में ही बात करती हूँ , जिस तरह से आपके स्कूल की दूसरी टीचर्स करती हैं बल्कि मैं तो उनसे भी अच्छी इंग्लिश बोल सकती हूँ . आपने तो मेरा एकेडेमिक रिकार्ड देखा है कि बाकी सभी टीचर्स के मुकाबले मेरे अंक हर सब्जेक्ट में ज्यादा है . "

प्रिंसिपल , " देखो उर्वशी, मैं बच्चों की शिकायत को नजर अंदाज नहीं कर सकता क्योंकि अगर इनके माता- पिता तक यह बात पहुँची तो स्कूल का नाम खराब होगा। हाँ, अगर तुम चाहो तो मै तुम्हारा साथ दे सकता हूँ अगर " ऐसा कहते- कहते प्रिंसिपल उसके पास आकर खड़े हो गए और उसके कंधे पर हाथ रख लिया । उर्वशी झट से चौंक कर खड़ी हो गई तो प्रिंसिपल ने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया।

" उर्वशी , मेरे घर पर कोई नहीं है अगर आज शाम तुम मेरे घर आ जाओ तो मै सारा मामला संभाल लूँगा "

उर्वशी की समझ में कुछ नहीं आया तो वह जल्दी से कमरे से बाहर निकल गई और स्टाफ रूम में जाकर बैठ गई। अगर वह घर जल्दी जाती है तो पति और सास के ताने सुनने को मिलते । उसका दिमाग सुन्न-सा हो गया। कुछ देर बाद अपने को थोड़ा संभाल कर वह भारी क़दमों से घर पहुँच गई। बिना किसी से कुछ कहे वह अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गई। बरबस ही उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । उसके पति कमरे में आकर उसे ताने मारने लगे पर जैसे उसके कानों तक कोई बात पहुँच ही नहीं रही थी मानो उसका शरीर पत्थर का हो गया हो। . धीरज के साथ कोई भी बात करने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि न तो उसने उसे कभी समझा था न ही कोशिश की थी। स्कूल छोड़ने की बात वह उसे कैसे कहती यही विचार बार- बार उसके मन में खलबली मचा रहे थे । एक तरफ कुआं था तो दूसरी तरफ गहरी खाई थी । उसकी किस्मत यहाँ भी उसे मात दे रही थी । भारी मन से आखिर उसने धीरज को कह ही दिया , " धीरज, मैंने वह नौकरी छोड़ दी है क्योंकि हर रोज स्कूल में ४ बजे तक रुकना पड़ता है और अब तो शाम की क्लासिस भी शुरू हो रही है तो मै अपनी बच्ची को इतनी देर नजर अंदाज नहीं कर सकती। "

आकाश साफ-सुथरा दिख रहा था , तभी अचानक कहीं से रेत भरा अंधड़ आने लगा। देखते-देखते सारा आकाश काला भूरा हो गया । पतंग उड़ाने वाले कहीं और चले गए ,मगर वह पतंग आसमान की ऊंचाइयों को छूने लगी और कहीं दूर जाकर एक बड़े बरगद के पेड़ की शाखा पर अटक गई ।

इस तरह कई दिनों तक वह घर में गुमसुम सी रहने लगी ।

फिर एक दिन उनकी कालोनी में समाज सेवा के तहत शिकायत-निवारण शिविर लगा। अपनी सहेली के साथ वह उस शिविर में गई जहाँ पर राज्य के गण्य- मान्य व्यक्ति , अधिकारीगण सब मौजूद थे । उस शिविर में अपनी कालोनी की समस्याओं को जिस बखूबी से उसने सबके सामने रखा तो अधिकारीगण के समूह ने सभी काम तुरंत करने के वहीँ निर्देश दे दिए । एक तरफ बैठे विधायक महोदय राम स्वरुप ने सस्नेह उसे अपने पास बुलाया और उसका परिचय लेने लगे , " बेटी , अगर किसी प्रकार की कोई दिक्कत या असुविधा हो तो बेझिझक मेरे कार्यालय में आ जाना . मुझसे जो बन पड़ेगा यथा संभव तुम्हारी मदद करूँगा । "

विधायक के मुँह से इस तरह का आश्वासन पाकर उर्वशी का मन खुश हो गया । मन ही मन वह विधायक महोदय के व्यक्तित्व से गहराई में प्रभावित थी । वह मन ही मन हवाई किलो (हवाइकिलों) का निर्माण कर आसमान में उड़ने लगी । .

फिर अचानक उस पतंग का धागा वहाँ से भी टूट गया और तेज हवा चलने से वह फिर से आसमान की ऊँचाइयों को छूने लगी। उसे लगने लगा कि कुछ कर दिखाने का मौका उसे भगवान् ने दे दिया है .

एक बार विधायक महोदय से जब उसने कोई काम दिलवाने की बात कही तो उन्होंने उसे अपने चमचे बनवारी के पास भेज दिया। उस शहर में बनवारी के कई काल सेंटर चलते थे । बनवारी ने उसे काल सेंटर में नौकरी करने की पेशकश की । उर्वशी रात में काल सेंटर में काम पर जाने से झिझक रही थी तो बनवारी ने समझाते हुए कहा , " देखो,उर्वशी ,अगर तुम काल सेंटर में काम करोगी तो दिन भर तुम साथ- साथ समाज सेवा भी कर सकती हूँ इसमें भी मै तुम्हारा भरपूर सहयोग करूँगा ।मुझे अपना दोस्त और हमदर्द समझो ,बदले में मुझे कुछ नहीं चाहिए बस कुछ पल सकून के तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूँ। मै तुम्हे राजनीति के भी सारे दाव -पेंच सिखा दूंगा। "

पता नहीं बनवारी की बातों में कैसा सम्मोहन था कि वह उसकी तरफ आकर्षित हो गई । वैसे भी घर पर तो उसे न ही प्यार न कोई सम्मान मिला था आज तक , बल्कि हर समय दुत्कार ही मिलती थी । उसे लगा जिस प्यार की तलाश उसे है शायद उसे पाने का समय आ गया है। मन ही मन सोचने लगी कि जिस इंसान के लिए उसने अपने समाज, अपने माता पिता की परम्पराओं , अपने जीवन तक को दाव पर लगा दिया उसने आज तक दो पल सुख के उसे नहीं दिए थे।

धीरज का नीरस व्यवहार , घर की आर्थिक हालत , बच्चों की परवरिश को लेकर बढती जिम्मेवारियां और भविष्य के सुनहरे सपनों का सारा संसार उसके सामने मुँह खोल कर खड़ा था और उसे अपनी तरफ बुला रहा था । उर्वशी ने बनवारी की हर बात में हाँ में हाँ मिलाती चली गई । मन ही मन सोचने लगी ईश्वर खुद थोड़ा किसी की मदद करने आते है किसी इंसान को ही फ़रिश्ते के रूप में भेजते हैं। पार्टी में भी उसने अपनी काबलियत और मेहनत के बलबूते पर अच्छा नाम कमा लिया था । आए दिन किसी न किसी प्रोग्राम में भाग लेने जाती और इस तरह वह बहुत व्यस्त हो गई कि भीड़ में वह खुद को ही भूलती गई । बस एक आवेग में वह बहती जा रही थी ।

जब भी उसके पास कोई भी किसी काम से आता तो उसे बहुत अच्छा लगता और अपनी और से पूरा आश्वासन देते हुए कहती , " आप लोग चिंता मत करें , आपका काम हो जाएगा , बस आप लोग मुझे अपना सहयोग और आशीर्वाद देते रहें। "

हर रोज उसकी दिनचर्या में वह सुबह जल्दी उठ कर सब काम निबटा कर तैयार होकर बैठ जाती तांकि किसी काम से आने वाले को इन्तजार न करना पड़े। अपने अंदर वो अजीब-सा साहस महसूस करती । घर , बाहर , बच्चे सभी काम वो बखूबी संभाल रही थी । अद्भुत शक्ति की मालकिन थी उर्वशी ! अपने इलाके के कई बुजुर्ग लोगों और विधवा औरतों की पेंशन का काम भी उसने दिन- रात एक करके करके दिखाया जिससे हर बुजुर्ग उसे आशीर्वाद देता न थकता । परन्तु उर्वशी इतनी खुद्दार थी या फिर उसकी कमजोरी कि लोगों के काम तो विधायक महोदय से कहकर करवा लेती परन्तु अपने किसी निजी काम के लिए बोलने के लिए उसकी जुबान को ताला लग जाता। .

बरगद पर अटकी हुई उस पतंग की डोर किसी के हाथ में आ गई ,वह उसे अपनी ओर खींचने लगा । मौसम भी साफ हो गया ,हवा भी रूक गई थी । वह पतंग आसानी से उस आदमी के कब्जे में आ गई ।

एक दिन वह काल सेंटर में अपने आफ़िस में बैठी कुछ सुस्ता सी रही थी , कई ख्याल दिमाग में आ-जा रहे थे कि अचानक वहाँ बनवारी आ गया । उसे देखकर उर्वशी एकदम से झेंप गई और अपने काम में व्यस्त होने का अभिनय करने लगी। . बनवारी उसके पास आकर बैठ गया और पूछने लगा , " क्या बात उर्वशी कई दिनों से देख रहा हूँ कुछ उखड़ी-उखड़ी सी हो । क्या कोई बात है मन में क्या ? "

" नहीं, बनवारी जी ऐसी कोई बात नहीं है । बस दिन भर सामजिक कामों में उलझी रहती हूँ और रात को यहाँ की ड्यूटी थक जाती हूँ ।. मन नहीं लग रहा आज कल किसी काम में "

" क्यों तुम्हारे पति तुम्हारा हाथ नहीं बँटाते क्या ? मैंने तो उन्हें किसी कार्यक्रम में तुम्हारे साथ आते- जाते भी देखा नहीं है "

" नहीं बनवारी जी ,काम काज की इतनी बात नहीं है । असल में घर की जिम्मेवारियां दिन भर बढती जा रही है और सामाजिक एवं राजनैतिक दायरा बढता जा रहा है और खर्चे भी बढ़ गए हैं परन्तु आमदनी वही की वही "

' उर्वशी, तुम चाहो तो मै तुम्हारे पति को दिन भर अपने आफ़िस संभालने का काम दे सकता हूँ जिससे उनकी एक्स्ट्रा आमदनी हो जाएगी। "

" यह सुनकरउर्वशी की बांछें खिल गई।वह बार- बार बनवारी का अहसान मानते हुए उसका शुक्रगुजार करने लगी। "

मन ही मन उर्वशी सोचने लगी कि बनवारी जी कितने नेक इंसान है । इतना नाम पैसा शोहरत होने पर भी अहंकार रत्ती भर नहीं है उनमें। .

" अरे उर्वशी ,कहाँ खो गई , चलो आज काम की छुट्टी करो , कहीं चल कर काफी पीते है । तुम्हारी थकान भी उतर जाएगी । आज घर जल्दी जाकर आराम करो । सुबह अपनी पति को मेरे आफ़िस लेकर आ जाना । "

इस तरह उर्वशी बनवारी के अहसानों के तले दबती जा रही थी और उसकी बातों से मंत्र-मुग्ध हो जाती ।

एक दिन उर्वशी शाम को अपने काल-सेंटर जाने के लिए तैयार हो रही थी कि अचानक उसके फोन की घंटी बजी ,दूसरी तरफ बनवारी था और कहने लगा , " उर्वशी, आज आफ़िस से छुट्टी कर लो मैंने आज एक छोटी-सी पार्टी रखी है और मै तुम्हे लेने आ रहा हूँ , मुझे पास वाली मार्किट में मिलो "

उर्वशी बनवारी पर इस कदर भरोसा करने लग गई थी कि मना न कर सकी । बनवारी उसे लेकर एक बड़ी सी बिल्डिंग में पहुँच गया और सीढ़ियाँ चढ़कर एक फ़्लैट के दरवाजे को उसने चाबी से खोला और उर्वशी को अंदर आने को कहा . अंदर मेज पर खाने-पीने का सामान और एक शराब की बोतल पड़ी थी ।

उर्वशी ने झिझकते-झिझकते पूछा , " बनवारी जी, यहाँ पर तो कोई और नहीं है हमारे अलावा "

" अरे घबराओ ना , थोड़ी देर बैठ कर बातें करेंगे कुछ विचार- विमर्श करेंगे । एक दूसरे से बात करके मन हल्का हो जाएगा।"

कहते- कहते बनवारी ने दो ग्लासों में शराब डालनी शुरू कर दी और एक गिलास खुद ले लिया और दूसरा उर्वशी की तरफ बढ़ा दिया ।

उर्वशी मना करते हुए , " बनवारी जी, मैंने कभी शराब नहीं पी आजतक । "

" तो कोई बात नहीं , हर कोई पहली बार कभी ना कभी तो पीता ही है । ले लो शरमाओ मत । राजनीति में आगे बढना है तो ये सब तो बहुत आम सी बातें हैं । "

झिझकते- झिझकते आखिर उर्वशी ने गिलास पकड़ लिया । उसे हल्का- हल्का सरूर सा होने लगा तो बनवारी कहने लगा , " मुझे मालुम है उर्वशी तुम्हे अपने पति से वो प्यार वो सुख नहीं मिल पाता जिसकी तुम हकदार हो , कोई बात नहीं मै तुम्हारा दोस्त हूँ तुम्हारे हर सुख-दुःख को समझता हूँ और तुम्हारे साथ हमेशा खड़ा रहूँगा। "

उर्वशी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था परन्तु वह उसकी बातों में फंसती जा रही थी और इस तरह उसके मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे . वह जानती थी कि वह सही ही तो कह रहा है कि उसे उसके पति से आज तक वह प्यार और सुख नहीं मिला , यही सोचते- सोचते वह शराब के सरूर में डूबती जा रही थी ।.

बनवारी उसे अपनी योजना बताने लगा , " उर्वशी , मेरी तरकीब है कि आगामी चुनावों में मैं विधायक महोदय को हरा दूँ और उसकी जगह ले लूँ अगर तुम मेरा साथ दो तो ।बदले में, मै तुम्हे हर सुख, ऐशो आराम दूंगा। "

यह कहते- कहते उसने अपना बायाँ हाथ उर्वशी के कंधे पर रख दिया । चाहते हुए भी आगे के हसीन सपने देख वह बनवारी को मना नहीं कर पाई , धीरे- धीरे उसका बढ़ा हाथ उर्वशी के सारे शरीर में घूमने लगा । उर्वशी को भी कुछ नशा-सा लगने लगा , वैसे भी वह उसके आभार तले दबी हुई थी ।.सोचने लगी कि जो काम पति नहीं कर सकता अगर बनवारी कर रहा है तो उसमे खराबी क्या है ? धीरे-धीरे वह भी फिसलने लगी । आचरण में पवित्र रहने वाली उर्वशी न जाने कब बनवारी की बाहों में नंगे बदन सो गई ।. जब नींद खुली तो सर भारी-भारी लग रहा था और अपराध बोध भी मन को घेरने लगा था। मगर शास्त्रों में उसने के बारें में पड़ा था । शास्त्रों के अनुसार नियोग की हालत में दूसरे पुरुष से सम्बन्ध बनाने की अनुमति दी जाती है और इसे पाप नहीं माना जाता और प्राचीन काल में भी यह मान्यता प्राप्त कृत्य था ।तरह -तरह के विचारों से अपने आप को ढांढस बंधाती और पाप-पुण्य के द्वंद्व से ऊपर उठने का बार- बार प्रयास करती रही उर्वशी । बनवारी ने उर्वशी की उलझन को सुलझाने का प्रयास किया , " उर्वशी, कार्ल मार्क्स का नियम शायद तुमने पढ़ा होगा कि जो चीज आसानी से हासिल नहीं होती उसे छीन झपट के कब्जे में किया जाता है । तुमने कोई अपराध नहीं किया है । जो कुछ हुआ हम दोनों की सहमति से हुआ और जहाँ सहमति हो उसे गलत नहीं माना जाता । आजकल तो हर क्षेत्र में महिलायें अलग- अलग हथकंडे अपना कर तरक्की करना चाहती है और तुम इतना सोच विचार कर ख्वाम ख्वाह अपने को कसूर वार मान रही हो । हम दोनों दोस्ती के नाते एक दूसरे से हर दुःख सुख बाँट सकते हैं। "

धीरे- धीरे उर्वशी और बनवारी की चाहत शारीरिक भूख की तृप्ति की आदी होती गई ।उर्वशी को तो अब किसी तरह भी जीवन में सबको कामयाब होकर दिखाना था इसलिए अब वह अपने मन में किसी तरह का गलत विचार ना आने देती , क्योंकि घर की चिक चिक से दूर उसे वक्त बिताना अच्छा लगता । उसे बनवारी में अपना सच्चा प्यार नजर आने लगा , पर उसे क्या पता था कि हाई प्रोफाइल सोसायटी में जिस्मानी सम्बन्ध बहुत आम-सी बात है ।अगर एक आदमी कई औरतों से रिश्ता रख सकता है तो क्या औरत ऐसा नहीं कर सकती ?.और स्वेच्छा से किया परकीय प्रेम अपराध की श्रेणी में नहीं आता है । कहीं- कहीं तो कितने अखबारों में तो उसने औरत और मर्दों की दोस्ती के लिए बने ऐसे कई क्लबों के बारें में भी पढ़ा हुआ था । विभिन्न किस्म की परिभाषाएं वह अपने मन मस्तिष्क में खोजती हुई विचारों के महासागर में गोते खाती रहती .इस तरह वह बनवारी को अपना तन , मन , आत्मा , दिल सब कुछ सौंप चुकी थी और उसे एक मसीहा समझते हुए अपना सच्चा हमदर्द समझती थी । उसे सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उसने स्थानीय चुनावों में खड़े होने के लिए बनवारी से भरोसा माँगा तो उसने बदले में उसे कहा , "उर्वशी, मैंने जो मेरी तरफ से हुआ तुम्हारी हर संभव मदद की परन्तु ये मेरे भविष्य का सवाल है और राजनीति में मेरा असूल है कि मै पढ़े लिखे लोगों पर भरोसा नहीं करता क्योंकि वे पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं । "

उस आदमी ने उस पतंग को उड़ाने का भरपूर प्रयास किया, परन्तु संभाल न पाया तो उसका धागा टूट गया और वह पतंग फिर से आसमान में उड़ने लगी ।.

उर्वशी पर तो मानो आसमान टूट पड़ा हो , जिस इंसान को उसने अपना सर्वस्व सौंप दिया उसने उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंका । किसे जाकर वह अपनी अर्ज सुनाये? कहाँ जाकर अपने दुःख की गुहार लगाए ? एक बार तो उसके कदम रेल की पटरी की तरफ मुड़ गए। बेजान-सी पत्थर की मूर्त बनी वह बेसुध चली जा रही थी तभी एक जान पहचान के व्यक्ति ने जब वह उनकी साइकिल से वह टकराने लगी , " मैडम जी , किधर जा रही है पैदल- पैदल, आपका घर तो दूसरी तरफ है । क्या बात ? अगर तबीयत ठीक नहीं है तो मै आपको रिक्शा पर बिठा देता हूँ . "

उर्वशी जैसे कोई बुरे सपने से जागी हो , " अरे नहीं -नहीं भाई साहिब , दरअसल सर में कुछ चक्कर सा लग रहा था, परन्तु अब ठीक है । मै धीरे -धीरे चली जाउंगी । आप चिंता ना करे। " कहते -कहते उर्वशी वापिस अपने घर की तरफ मुड़ गई । घर पहुँची तो उसके बच्चे भागे भागे उसके पास आए , " मम्मी कहाँ रह गई थी ? आज बहुत देर मेंलौटी हैं । बड़ी भूख लग रही है , कुछ बना कर दो न । "

उर्वशी मन ही मन सोचने लगी , हाँ शायद बहुत देर हो गई है !

भगवान् के भरोसे अपने जीवन को छोड़ने के इलावा उसके पास कोई चारा नहीं था । वह तो इस समय चाह कर भी ना रो सकती थी ना मर सकती थी । उसके बच्चों के मासूम चेहरे उसकी नजरों के सामने घूमने लगेउर्वशी अब पूरी तरह टूट चुकी थी और एक जिन्दा लाश की तरह हो गई थी ।.वह हमेशा तनाव और अवसाद की हालत में रहती । परन्तु अपने बूढ़े माता- पिता के मुरझाए चेहरे देखकर उसे जीने की हिम्मत दोबारा बटोरनी पड़ी।

घर के खर्चों में सहयोग के लिए उसने पोस्ट आफ़िस की एजेंसी ले ली और दिन भर वहाँ खड़ी होकर काम करती . वहाँ एक दिन एक आदमी आया जिसका नाम जीत पन्नू था । उसने उर्वशी को बीस हजार रुपये देकर इन्वेस्ट करने को कहा ।. उर्वशी को बड़ी हैरानी हुई कि बिना जान पहचान वो इतनी बड़ी रकम कैसे दे सकता है । उसे क्या पता था वो तो उसके सुन्दरता की तरफ आकर्षित हुआ है । कभी- कभी उसे अपनी सुन्दरता अभिशाप लगने लगती जो हर जगह बाधा बन कर खड़ी हो जाती है ।

वह तो हर इंसान में भगवान् का रूप देखती पर जब असलियत खुलती तो उसे शैतान नजर आता ।.

जीत पन्नू के दिए पैसे किसी स्कीम में इन्वेस्ट करने के लिए एक बार उसे कुछ पेपर पर उसके साइन करवाने थे । उसने जब उसे फोन किया कि वो पेपर पर आकर साइन कर जाए तो उसने बहाना बना दिया कि उसकी तबीयत कुछ ठीक नहीं है इसलिए वह उसके घर आकर साइन करवा जाए । उर्वशी का काम ऐसा था कि उसे अपने क्लाइंट्स के कहे मुताबिक़ चलना पड़ता था । इसलिए वह उसके बताए पते पर पहुँच गई । उसका घर काफी बड़ा था । जब वह सहमते-सहमते अंदर गई तो वह ड्राइंग हाल के एक कोने में सिमट कर बैठ गई और जल्दी से पेपर साइन करने को कहने लगी । उसे बड़ी हैरानी हो रही थी कि इतने बड़े घर में कोई और सदस्य नहीं दिखाई दे रहा था, यहाँ तक कि कोई काम करने वाला भी दिखाई नहीं दे रहा था । थोड़ी देर बाद वह कमरे में आया और अपने होंठों पर मुस्कराहट बिखेरते हुए बोला , " अरे, ये क्या इतना झिझक क्यों रही हो ? आराम से बैठो और पीने के लिए क्या लोगी ? "

"नहीं- नहीं पन्नू जी , बस आप इन पेपर पर साइन कर दे मुझे जल्दी है . "

" अरे इतनी भी क्या जल्दी है । कुछ पीने को लाता हूँ तुम्हारे लिए । क्या लोगी ठंडा या गर्म ? आज तो तुम बहुत हसीन दिख रही हो । चलो तुम्हे अपना घर दिखता हूँ। "

उर्वशी को डर लगने लगा । दूध का जला छाछ भी फूक- फूक कर पीता हैउसे उसकी नियत पर शक होने लगा । तभी वह बहाना बना कर बाहर चली गई , " ओह ! मै तो कागज़ बाहर ही भूल आई । अभी लेकर आती हूँ। "

" अरे, कागज़- वागज को मारो गोली , तुम जैसी हसीना पर तो मैं अपनी सारी जायदाद वैसे ही कुर्बान कर दूँ ।. ये क्या दो- चार सो रुपये के लिए धक्के खाती रहती हो । मेरी बाहों में आ जाओ तुम्हे जीवन भर कोई काम नहीं करना पड़ेगा। "

उर्वशी उसकी बातों को नजरअंदाज कर बाहर चली गई और जल्द से अपना स्कूटर स्टार्ट किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।

घबराहट और तनाव में उर्वशी का उस दिन घर जाते समय स्कूटर पर एक्सीडेंट हो गया और उसकी टांग की हड्डी टूट गई ।उसके माता-पिता उसके इलाज के बाद उसे अपने घर ले गए । वहाँ वह छह महीने रही । उसका पति वहाँ पर छोड़कर उसे बेफिक्र हो गया जैसे उसकी उर्वशी के प्रति कोई जिम्मेवारी ना हो । उसकी माँ उसके बच्चों को वहीँ से स्कूल भेजती और सारे काम करती । उसके भाई ने भी उसके लिए रात- दिन एक कर दिया । उर्वशी को लगता जैसे उसका जीवन ठहर गया हो । उर्वशी को एक साल लग गया ठीक होते - होते और इतने समय में उसका पोस्ट आफ़िस का काम भी ठप हो गया । ठीक होने के बाद भी उसके मन में स्कूटर चलाने को लेकर एक अनजान-सा डर बैठ गया और शारीरिक के साथ- साथ उसकी मानसिक हिम्मत भी अब बिल्कुल शिथिल पड़ गई.।

अब तो उसकी ताकत बिल्कुल दम तोड़ गई । उसे शराब की लत लग गई । अपने दुःख भुलाने के लिए उसे कोई सहारा नजर नहीं आता था । पति धीरज को उसकी किसी भी परेशानी से कोई फर्क नहीं पड़ता था बस, उसे तो समय पर अपने हर काम किया हुए चाहिए थे।.

टूटी हुई पतंग नीले आकाश की ओर फिर एक बार बढ्ने लगी । इस बार पास के किसी मोहल्ले वाले ने उसे अपने कब्जे में करना चाहा । पकड़ते- पकड़ते वह पतंग उसके हाथ से भी छूट गई थी और जाकर किसी समाज सेवी के घर के आगे एंटीना पर फंस गई ।

जब उसने समाज सेवा के तहत पौधा -रोपण और स्वास्थ्य चेकअप के कैंप आदि अन्य कई कार्यक्रम किए तो वहाँ उसकी मुलाक़ात कुलभूषण नाम के व्यक्ति से हुई जिसने उसकी काफी मदद की । वह कई विषयों पर उससे राय लेती तांकि प्रोग्राम सफल हो और लोगों को उसका भरपूर फायदा मिले। फिर धीरे - धीरे कुलभूषण का उसके घर काफी आना जाना होने लगा यहाँ तक कि उसके पति का विश्वास भी उसने जीत लिया । वह उसके घर के सदस्य की तरह हो गया । हर दिन त्योहार पर वह उसके बच्चों के लिए महंगे तोहफे लेकर आता जो कि वह अपने बच्चों को खरीद कर नहीं दे सकती थी । उर्वशी यह देख मन ही मन बहुत खुश होती और कुलभूषण को एक भला इंसान समझने लगी । एक बार की बात थी जब दीवाली का त्यौहार आने वाला था तो कुलभूषण दीवाली का तोहफा लेकर अचानक उसके घर पहुँच गया तब वह घर पर अकेली थी । उसके पति बच्चों के साथ अपने गाँव किसी जरूरी काम से गए हुए थे । कुलभूषण ने वहीँ से फोन पर जब उसके पति से बात की तो उसे पता चल गया कि वे लोग अगले दिन आने वाले हैं । यह सुनकर कुलभूषण के चेहरे की ख़ुशी साफ़ देखी जा सकती थी । उर्वशी को अकेला पाकर कुलभूषण उससे कहने लगा , " चलो उर्वशी , आज तुम भी अकेली हो घर पर , इसलिए चलो कहीं बाहर चलकर खाना खाते हैं । उसके बाद मै तुम्हे घर पर वापिस छोड़ दूंगा । "

कुलभूषण की नीयत भांपते हुए उर्वशी बोली " नहीं , नहीं कुलभूषण जी, आज तो मैंने पहले से ही अपनी सहेलियों को खाने पर बुला रखा है । फिर किसी दिन जब धीरज भी होंगे तब सब साथ- साथ चलेंगे। "

" अरे , ये क्या उर्वशी तुमने तो मेरा दिल ही तोड़ दिया । इतना सुनहरा मौका फिर पता नहीं कब मिलेगा । अपनी सहेलियों को मना कर दो और साथ में मै तुम्हे दीवाली पर बाजार से कुछ ख़ास तोहफा लेकर देना चाहता हूँ । तुम्हें नहीं पता मै मन ही मन तुम्हे कितना चाहने लगा हूँ । आज की रात मेरे नाम कर दो, बदले में मैं जिन्दगी का हर सुख तुम्हारे नाम कर दूंगा ।"

उसकी ऐसी बहकी- बहकी बातें सुनकर उर्वशी एकदम से हक्की- बक्की रह गई और उसे मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था। परन्तु उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बल्कि चुपके से अंदर जाकर अपनी ख़ास सहेली जोकि उसके घर के पास ही रहती थी ,उसे फोन करके जल्दी से घर पर बुला लिया । इस तरह उसने बड़ी मुश्किल से उससे पीछा छुड़ाया .

.कभी- कभी उसे अपने आप से नफरत होने लगती ।जहाँ पर भी वह जाती हर कोई उसे उसके जिस्म को घूरता हुआ दिखाई देता । किस- किस का नाम लेती वह ।.उसकी तालिका लम्बी होती जा रही थी ।

इसी तरह अपने सामाजिक क्षेत्र में लोगों के काम करवाने वह जिस भी अधिकारी के पास जाती हर कोई बदले में उसके साथ हमबिस्तर होना चाहता । इस तरह की वहशी नजरों को अपनी तरफ घूरते देख उर्वशी की बर्दाश्त करने की सीमा ख़त्म होती जा रही थी ।

उर्वशी का धीरे- धीरे आदमी जात पर से विश्वास उठता जा रहा था ।उर्वशी जो कि किसी समय में इतनी चुलबुली हुआ करती थी धीरे- धीरे अंतर्मुखी होती गई ।. बस, हर समय घर पर रहती ना किसी से मिलना पसंद करती और ना ही उसकी किसी काम करने में दिलचस्पी रही । हर समय अपनी दुनिया में खोई रहती । मन ही मन आत्म मंथन करती रहती कि औरत को जीवन में कुछ कर दिखाने के लिए ना सिर्फ अपने परिवार के दायरे में संघर्ष करना पड़ता है बल्कि मानसिक और शारीरिक तौर पर भी प्रताड़ना सहनी पड़ती है । क्या उसकी भावनाओं की कोई कद्र नहीं ?एक कटी पतंग की तरह उसे अपना जीवन मँझधार मेंलगने लगा।

गली में ‘पकड़ो- पकड़ो’ का शोरगुल सुनकर अचानक उर्वशी की तन्द्रा भंग हुई तो उसने देखा सब लोग उस आसमानी रंग की पतंग के पीछे भाग रहे हैं और वह पतंग गली के एक बिजली के खम्बे पर आकर अटक गई।. सब लोग उस पतंग की और ललचाई नजरों से देखने लगे । हर कोई उस पतंग को पा लेना चाहता था ।

तभी उर्वशी के पड़ोस का एक मासूम सा गंभीर प्रवृति का लड़का भागा- भागा आया , वहाँ बहुत से लड़के उस पतंग को उतारने की कोशिश में लगे थे । परन्तु उस लड़के ने अपनी सहनशीलता और अदम्य साहस का परिचय देते हुए बड़ी खूबसूरती से उस पतंग को उतार लिया और उसे लेकर तेजी से अपने घर की तरफ भागा । सब बच्चे उसका मुँह देखते रह गए । वह भागता रहा जब तक कि वह उसे अपने घर के अंदर सुरक्षित नहीं ले गया । वह अपनी इस प्राप्ति पर बहुत खुश था । वह पतंग धीरे- धीरे उसकी कमजोरी बन गई । वह जब भी वह पतंग उड़ाने लगता तो उसे उसके कट जाने का डर फिर सताने लगता कि पता नहीं अगर इस बार यह पतंग कट गई तो इसकी क्या दुर्दशा होगी और उसने फिर उस पतंग को उड़ाना ही छोड़ दिया । वह उस पतंग को बड़े प्यार से अपने पास संभाल कर रखता ।

उर्वशी ने जब उस लड़के का उस कटी पतंग के लिए इतना मोह देखा तो बरबस ही उसकी आँखों में आंसू आ गए । मन ही मन उस लड़के के भोलेपन को देख वह सोचने लगी कि भला कोई एक कटी हुई पतंग से भी इतना मोह कर सकता है जबकि बाजार में एक से एक नई पतंगे मिलती हैं। उसे अपना वजूद भी एक कटी पतंग की तरह लगने लगा जिसे हर कोई अपना समझ कर पकड़ कर उडाना चाहता है। वह सोचने लगी कि काश उस लड़के की तरह उसे भी कोई मसीहा मिल जाता जो उसकी कद्र करता और उसे इस तरह अपने पास सहेज कर रखता । पर एक पतंग के और एक औरत की वास्तविकता में जमीन- आसमान का अंतर है , उस पतंग को तो खम्बे पर से उतारने का साहस किसी ने दिखा दिया परन्तु क्या किसी में इतनी हिम्मत है कि उसे मँझधार से उभार सके और खम्बे पर लटके उसके जीवन को तार सके ?आजकल के जमाने में एक कटी पतंग की तरफ इतनी आत्मीयता दिखाए ?

Tuesday 14 February, 2012

दुआ

दुआ

वो हर पल खुदा से
अपने प्यार की सलामती की
दुआ करता है
हर लम्हा उसकी ख़ुशी
की फ़रियाद करता है
दिन - रात उसकी इक हँसी
के लिए
आंसू बहाता है
खुदा कहता है,
"ए बन्दे , मैंने तेरी झोली में
तेरा प्यार दिया जो
तूने मुझसे माँगा,
अब मै क्या कर सकता हूँ ?
जो करना है तूँ कर
प्यार की ताकत के आगे तो
मै भी बेबस और लाचार हूँ
हिम्मत है तो
कर हिफाजत अब अपने
प्यार की
निभाने का हौंसला रख
फूल के साथ कांटे भी चुन
अमृत के साथ विष भी पी
फिर देख मै तेरे साथ हूँ
उसकी ख़ुशी भी तूं गम भी तूँ
हँसी भी तूँ आंसूं भी तूँ
सलामती भी तूं ,
तकदीर भी तूँ ,
वफ़ा भी तूँ ,जफा भी तूँ "

Tuesday 7 February, 2012

सजा

कल रात एक झटके में
तिनका तिनका बिखर गया
आंधी आई और
कारवाँ
गुजर गया
तूफ़ान उसके देस में चला
आशियाँ मेरा उजड़ गया
हर बार की तरह खुद
को कटघरे में खड़ा पाया
मुजरिम कोई और था
मुकद्दमा मुझ पर चला
फिर एक बार सजा मेरे
हिस्से में आई
बादल उसके शहर पे बरसे
सैलाब में घर मेरा बहा
किसने सोचा था इतना
बेदर्द होगा ये आलम !
इक बार तकदीर के
आगे वफ़ा हार गई
गल्ती हमारी थी
भूल हमसे हुई
दीये को हम सूरज
और एक रात की ख़ुशी को
जिन्दगी का सफ़र समझ बैठे !!

Friday 3 February, 2012

मेरे दोस्त का मृत्यु-संदेश


कल रात मैंने उसे
अपनी आँखों के सामने
अस्थमा के दौरे से
मरते हुए देखा
सिकुड़ कर सोया था वह
चारों दिशाएँ मूक
संकुचित घर
घर में धुंधलका
मगर खुले मैदान
खुला आसमान
देखते-देखते उसकी जीवन लीला समाप्त
मैं द्रवित हो सोचने लगी
“ मानव जीवन नश्वर क्षण-भंगुर है”

मरते-मरते उसने कहा
“अलका ,इस क्षण संवेदन से मत हो व्याकुल
यह जीवन चिंतन ,जीवन गति
जीवन के स्वर ,जीवन की धारा में
रहो तुम अचंचल अविचलित निराकुल ।
अगर चार सौ साल जीता तो
क्या मैं सुखी होता ?
कदापि नहीं
अगर तुम नश्वर होना चाहती हो
तो सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ तुम मरण-गीत
तुम कवियत्री हो
मुझ जैसे निर्बल मानव का यह संदेश
फैला दो चहुं ओर
मौत जीवन से ज्यादा सुखकर है । “
· · · 14 hou

प्रभात


आज प्रभात वेला में
जब मैं ध्यानावस्था में बैठी तो
पहले कोणार्क और खजुराहो मदिर के
भग्न भित्तियों की भृत्य नायिकाएँ
सामने आई और कहने लगी
आत्मा केवल परमात्मा से प्यार कर सकती है ।
तुम कहाँ हो ?
मायाजाल -जंजाल से ऊपर उठो
फिर देखो दुनिया स्वर्ग है
एक ने कान में कहा
उठते और सोते 108 गायत्री मंत्र पढ़ो
फिर देखो मन शांत और स्वस्थ होगा
मैंने कोशिश की
परमात्मा के उस प्यार पाने की
बहुत अच्छा लगा
वाकई आज सुबह मेरा नया जन्म हुआ
मैंने ईश्वर को मेरी गोद में पाया
नर में मुझे नारायण मिले
राधा और मीरा को अपने भीतर देखा
मुझे लगा सबसे बड़ी कविता
अध्यात्म है और उसके सिवा
केवल शब्दों की हेराफेरी
और वाग्मिता की मरीचिका
· · ·

Thursday 2 February, 2012

खंडहर


खंडहर

खंडहर हुआ महल अपने
बोझिल अक्स को
मूक आँखों से रहा निहार
जहाँ थी कभी यौवन
भरे उपवन की बहार ,

आज खोखली दीवारों से
झरती रेत की तरह
मनुहार
कीट पतंगों , गले सड़े कीड़ों
का भरा अम्बार
सुगन्धित सीलन भरी मिट्टी
भी देने लगी दुर्गन्ध
ठहरे पानी में जमी काई की
छटपटाहट से तन बीमार ,

पाप - पुण्य , आस्था - अनास्था
की सीमा में उलझ
मंदिर की मूर्तियाँ धूल भरे
जालों में झुलस
देवता भी जहाँ करते
थे कभी वास
वहीँ खंडहर हुई सुन्दरता की
कुरूपता में बुझे स्वास ,

जहाँ तक थी कभी
सड़क चमकदार
वहाँ अब है संकरी पगडण्डी
खतरें अपार
कौन मुसाफिर जाने का
करेगा दुसाहस ?