Wednesday 1 May, 2013

वियोग




वियोग में भी योग छुपा होता है 
पुनर्मिलन  का संयोग छुपा होता है 

दूर जाने की वेला आ रही जैसे  पास 
विरह की चिता में जल  रही  उदास 

मिलन के बाद विछोह अक्सर होता अधिक पीड़ादायक 
इक- इक पल बिन साजन होगा  कष्टदायक 

उड़ चले दो यान विपरीत दिशाओं में
 इक पूर्व और इक पश्चिम की ओर  
झरनों का वक्ष स्थल भी होने लगा  कठोर 

बादल के सीने में घुमड़ रहा था धुआं 
बदली के मिलन को वो भी  तड़प उठा  

शीशे के पीछे  पर्वत पर झुकी  घटाएं 
जैसे साजन  के चेहरे पर थी लटाएं 

उत्तर की  पर्वत श्रंखला  चल रही  साथ- साथ 
पीछे अपना सब छोड़ आई   साजन के पास 

माथे का टीका, कानों की बाली 
आँखों का कजरा ,होंठों की लाली 

कोहरे के आवरण में लिपटी स्मृतियाँ 
आँखों में धूमिल रक्त रंजित कृतियाँ 

सोच -सोच  कब होगी प्रियतम से मुलाक़ात 
कैसे भूलेगी मिलन की वो  सुनहरी रात 

करने को अपने मन मंदिर के देवता की साधना 
अश्रु पुष्पों  से करने लगी भगवान् से प्रार्थना 

वियोद में भी योग छुपा होता है 
पुनर्मिलन का संयोग छुपा होता है 

लाल जोड़ा




तन्हाइयों को जब बैठती है  सोचने 
ढो रही है 
 सदियों से रिश्तों के भार को 
झूठे आडम्बरों के स्वांग को 
हर पल अपना गला घोंट 
दिखावे का लबादा पहने 
चलती फिरती लाश 
कठपुतली बनी सबके हाथों में 
कर्ज और फर्ज की परिधि में 
इधर- उधर ढोल रही है 
पथरीली दुनिया के रीतिरिवाज 
बाज की तरह मंडरा रहे  
अस्तित्व को नोच रहे हैं 
ड्राइंगरूम में सजे कीमती 
फूलदान के लाल फूल भी  
धूल  से सड़ने लगे हैं 
खुश्बूहीन बदबू दे रहे हैं 
इक दिन बचे खुचे
 प्राण पखेरू भी उड़ जायेंगे 
इसकी नाखूनों की परतें 
उखड़ने  लगी हैं 
हड्डियां मॉस को निगल रही हैं 
रूह मुक्त होने को बिलख रही है 
सुबह की लालिमा भी अब 
काली लगने लगी है 
आँखें चोटी की चट्टान की 
तरह खुश्क हो जम  गयी है 
आहट  होने पर भी 
धड़कन नहीं सुनती 
समय की प्रताड़ना उलाहनो तानों 
से सुन्दरता झुलस गयी है 
घावों के बार- बार हरा होने 
से मवाद गिरने लगी है 
घने लम्बे बालों की जगह 
कुछ सफ़ेद रेशे से रह गए हैं 
सुरमई होंठों पर पपड़ियाँ जम  गई  हैं 
जब तक कोई  बचाने आएगा 
सब तरफ मांस के लोथड़े फैले पड़े होंगे 
सभी रीतिरिवाजों विधिविधान  से उसका 
अंतिम संस्कार हो चुका  होगा 
देखो आज फिर उसने  वही 
पहले दिन वाला लाल जोड़ा पहना है 

शहर मेरा




शहर मेरे की मिट्टी  पर 
जब रखा उसने पहला कदम 
मैं  हैरान थी बेहद 
कि जिसकी मिट्टी  चूमने को   ,
जहां पर  रैनबसेरे को 
जिसका  एक कोना  पाने को  
हर मुसाफिर बेचैन रहता 
आहें था भरता 
कितनी मासूमियत से  
कहा था उसने 
एक प्याला चाय साथ 
तुम्हारे  पीकर 
 जी भरके तुम्हे देखकर 
 आशियाने को तुम्हारे देखकर 
 बचपन , जवानी से जुड़ी 
तुम्हारी हर याद को देखकर 
 चला जाऊँगा तृप्त  होकर   
गुस्सा भी आया था 
मेरी रूह की मिटटी पर 
कबसे अरमानों के बादल 
वफ़ा की हवा के साथ 
हुस्न की गीली बूँदें लिए 
आसमान की जमीं  पर 
   तैर रहे हैं 
उसे अतृप्त छोड़ जाओगे ?  
वो तो चला गया 
मुझे  शहर मेरे में ही
 बेगाना कर गया 
हर गली हर कूचा 
उसकी याद दिलाता है 
उसके जाने के बाद 
 हर दरो दीवार आज 
बेजान  वीरानी हो गई