Wednesday, 1 May 2013

लाल जोड़ा




तन्हाइयों को जब बैठती है  सोचने 
ढो रही है 
 सदियों से रिश्तों के भार को 
झूठे आडम्बरों के स्वांग को 
हर पल अपना गला घोंट 
दिखावे का लबादा पहने 
चलती फिरती लाश 
कठपुतली बनी सबके हाथों में 
कर्ज और फर्ज की परिधि में 
इधर- उधर ढोल रही है 
पथरीली दुनिया के रीतिरिवाज 
बाज की तरह मंडरा रहे  
अस्तित्व को नोच रहे हैं 
ड्राइंगरूम में सजे कीमती 
फूलदान के लाल फूल भी  
धूल  से सड़ने लगे हैं 
खुश्बूहीन बदबू दे रहे हैं 
इक दिन बचे खुचे
 प्राण पखेरू भी उड़ जायेंगे 
इसकी नाखूनों की परतें 
उखड़ने  लगी हैं 
हड्डियां मॉस को निगल रही हैं 
रूह मुक्त होने को बिलख रही है 
सुबह की लालिमा भी अब 
काली लगने लगी है 
आँखें चोटी की चट्टान की 
तरह खुश्क हो जम  गयी है 
आहट  होने पर भी 
धड़कन नहीं सुनती 
समय की प्रताड़ना उलाहनो तानों 
से सुन्दरता झुलस गयी है 
घावों के बार- बार हरा होने 
से मवाद गिरने लगी है 
घने लम्बे बालों की जगह 
कुछ सफ़ेद रेशे से रह गए हैं 
सुरमई होंठों पर पपड़ियाँ जम  गई  हैं 
जब तक कोई  बचाने आएगा 
सब तरफ मांस के लोथड़े फैले पड़े होंगे 
सभी रीतिरिवाजों विधिविधान  से उसका 
अंतिम संस्कार हो चुका  होगा 
देखो आज फिर उसने  वही 
पहले दिन वाला लाल जोड़ा पहना है 

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