Wednesday 1 May, 2013

शहर मेरा




शहर मेरे की मिट्टी  पर 
जब रखा उसने पहला कदम 
मैं  हैरान थी बेहद 
कि जिसकी मिट्टी  चूमने को   ,
जहां पर  रैनबसेरे को 
जिसका  एक कोना  पाने को  
हर मुसाफिर बेचैन रहता 
आहें था भरता 
कितनी मासूमियत से  
कहा था उसने 
एक प्याला चाय साथ 
तुम्हारे  पीकर 
 जी भरके तुम्हे देखकर 
 आशियाने को तुम्हारे देखकर 
 बचपन , जवानी से जुड़ी 
तुम्हारी हर याद को देखकर 
 चला जाऊँगा तृप्त  होकर   
गुस्सा भी आया था 
मेरी रूह की मिटटी पर 
कबसे अरमानों के बादल 
वफ़ा की हवा के साथ 
हुस्न की गीली बूँदें लिए 
आसमान की जमीं  पर 
   तैर रहे हैं 
उसे अतृप्त छोड़ जाओगे ?  
वो तो चला गया 
मुझे  शहर मेरे में ही
 बेगाना कर गया 
हर गली हर कूचा 
उसकी याद दिलाता है 
उसके जाने के बाद 
 हर दरो दीवार आज 
बेजान  वीरानी हो गई  

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