Sunday, 10 October 2010

बदलते-रिश्ते


थोड़ी देर में सब अपनी- अपनी सीटों पर बैठे- बैठे सुस्ताने लगे तो ठंडी हवा के झोंके से महिमा भी आँखें मीचते ही अतीत की यादों में खो गई . जब वह राजकीय महा विद्यालय में पढ़ती थी और उसके बी. ऐ. द्वितीय वर्ष का परिणाम आने वाला था . हर बार की तरह उसे इस बार भी पूरा विश्वास था कि वह कक्षा में प्रथम ही आएगी पर उसे तब बहुत अचरज हुआ जब परिणाम घोषित हुआ तो उसे पता लगा कि उसकी ही कक्षा का लड़का सारांश प्रथम आया है . सारांश पढने में तो होशियार था ही, देखने में भी कक्षा के अन्य लड़कों के मुकाबले में काफ़ी स्मार्ट था . जहां महिमा स्वभाव वश अपने में और अपनी किताबों तक ही सीमित रहती थी, वहाँ सारांश उतना ही चुलबुला और सब मे घुलने मिलने वाला लड़का था . महिमा शुरू से ही मन ही मन उसे पसंद करती थी और उसके प्रथम आने के बाद से तो वह उससे बात करने के लिए मन ही मन मौके की तलाश में रहती . कभी नोट्स लेने के बहाने या फिर किसी विषय पर जानकारी हासिल करने के लिए मौका ढूँढती रहती . पर सारांश तो एक भँवरे की तरह एक डाल से दूसरी डाल पर मंडराता रहता . यह सब देख कर वह मन ही मन हताश हो जाती . उसके मन में हीन भावना सी बैठ गई कि शायद वह इतनी आकर्षक नहीं है कि सारांश जैसा बहुर्मुखी लड़का उसकी तरफ आकर्षित हो . मन ही मन वह दुखी होती पर कभी भी अपने मन की बात किसी से कह नहीं पाती .


उधर कई दिनों से महिमा महसूस कर रही थी कि उसकी ही कक्षा का साधारण सा दिखने वाला लड़का अरुण जब देखो उसी की ओर देख रहा होता है .अरुण के व्यवहार में कुछ दिनों से वह अजीब सा बदलाव देख रही थी, महिमा इस कारण कुछ असहज सा महसूस कर रही थी . एक दिन वह जब कालेज से अपने घर की तरफ जा रही थी तो अरुण अचानक उसके सामने आ गया और इतनी सरलता से उसने अपने प्यार का इजहार उसके सामने कर दिया कि वह एक दम से झेंप सी गई और कुछ समझ न पाई .पर मन ही मन उसे उसकी स्पष्टवादिता और हिम्मत पर भी बड़ी हैरानी हुई . उसे अरुण की आँखों में अपने लिए वही प्यार दिखाई दे रहा था जो वह सारांश की आँखों में देखना चाहती थी .जब महिमा ने सारी बात अपनी सहेली मोनिका को बताई तो वह बड़ी परिपक्वता से बोली ,
" देखो महिमा, जीवन में एक बात याद रखना कि एक लड़की के लिए सबसे ख़ुशी की बात तब ही होती है जब वह उस इंसान से प्यार करे ओर उसकी कद्र करे जो उसे निस्वार्थ चाहता हो न कि उस इंसान के पीछे भागे जिसे वह खुद पसंद करती हो . ये प्यार नहीं होता बल्कि मात्र कच्ची उम्र का आकर्षण भर ही होता है . "


महिमा को भी अरुण की सादगी और भोलापन भाने लगा . जब उसके कालेज के अंतिम वर्ष की परीक्षाएं चल रही थी तो अरुण ने महिमा के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया.
जब महिमा ने अपने घर में अरुण के बारे में बताया तो जैसे आसमान गिर गया हो . उसकी माँ ने अरुण के बारे में सुनकर साफ़ इन्कार कर दिया और कहने लगी ,
" महिमा तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया जरा सा पढ़ लिख क्या ली हो ?जात बिरादरी किसी चीज का ध्यान ही नहीं है तुम्हे. उसके घर का वातावरण , रहन- सहन कुछ भी तो हम लोगो से मेल नहीं खाता है . जात बिरादरी में हमारी क्या इज्जत रहेगी "


जब महिमा ने अरुण को घर में हुए हंगामे के बारे में बताया तो अरुण का दिल टूट गया . उसकी दीवानगी तो किसी मजनू से कम ना थी .महिमा अरुण के बर्ताव को देखकर डर गई कि वह कहीं कोई अनर्थ न कर बैठे . उसे भी इतने दिनों में उसके साथ एक लगाव पैदा हो गया था इसलिए वह उसे किसी कीमत पर भी दुखी नहीं देख सकती थी . आखिरकार बहुत सारे हंगामो के बाद वे दोनों विवाह बंधन में बंध गए .वे दोनों एक दूसरे को पाकर बेहद खुश थे परन्तु जात- बिरादरी का भेद दोनों की आपसी ख़ुशी और शान्ति भंग करने पर तुला था .
महिमा जब भी अपने मायके तरफ के किसी प्रोग्राम में शामिल होने जाती तो उसे और उसके पति को नीचा दिखाने की कोशिश की जाती और कोई न कोई व्यंग्य बाण सुनने को मिल जाता . महिमा मन ही मन खून के घूँट पी कर रह जाती . जात बिरादरी को लेकर हर मौके पर अरुण को किसी न किसी तरह बेइज्जत किया जाता तो वह बहुत आहत होती. जबकि अरुण इतना सहनशील था कि वह उसके बारे में सोचती कि वह किस मिट्टी का बना हुआ है जो सब कुछ सुनकर भी उस पर कोई असर नहीं होता है और चुप रहता है .


ससुराल में भी अरुण के माता- पिता को ये बात हर समय सताती रहती कि उनके बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की है इस कारण उनकी नजरों में महिमा के रूप और गुणों की कोई कद्र न थी .


एक बार जब अरुण के छोटे भाई के विवाह के लिए लड़की देखने की बात हुई तो सब लोग महिमा के सामने ही बार- बार यही राग अलापते रहते कि इस बार राकेश के लिए तो वे अपने मन पसंद की और अपनी बिरादरी की लड़की ही ब्याह कर लाएँगे जो कि इस घर के माहौल के हिसाब से रच बस जाए . यह सब सुनकर महिमा के सीने पर सांप लौटने लगते पर वह फिर भी किसी से कुछ न कह पाती .

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महिमा अपने परिवार वालों के साथ बस में माँ वैष्णो देवी के दर्शनों के लिए जा रही थी . महिमा के भाई अभिषेक के घर बेटी होने के पांच वर्षों बाद बेटा पैदा हुआ था . उसकी माँ तो पोता होने की ख़ुशी में जैसे बांवरी सी हो गई थी .सब सगे सम्बन्धियों , रिश्तेदारों मित्रों को मिठाई बांटते- बांटते बताती फिर रही थी ," पूरे तीस वर्षों बाद हमारे खानदान में चिराग पैदा हुआ है , बिलकुल अभिषेक जैसे नैन नक्श है ."
उसकी माँ तो बस सारा दिन अपने पोते को गोद में लेकर बैठी रहती . जब उसकी भाभी भी मुन्ने को दूध पिलाने के लिए पकड़ने लगती तो उसकी माँ हिदायत दिए बिना न रहती ,
" देख बहू ,मुन्ने को जरा आराम से गोद में उठाया करो और प्यार से उसे भर पेट दूध पीने दिया करो . घर के कामों की जल्दी मत किया करो आराम से होते रहेंगे. "


जब अभिषेक का बेटा छः महीने का हुआ तो उसके मुंडन के वास्ते उसकी माँ ने वैष्णो देवी जाने की अपनी मन्नत की बात की तो उसके भाई ने सब घर वालों के लिए एक मिनी बस का इंतजाम कर लिया था, वैसे भी वह घूमने फिरने का कुछ ज्यादा ही शौक़ीन था . अभिषेक ने एम. बी. ऐ. करने के बाद अपनी मेहनत और लगन से एक अच्छी खासी कंपनी चला ली थी . उसकी माँ अभिषेक की तरक्की देखकर फूली नहीं समाती थी . महिमा के पिता जी ने एक सरकारी मुलाजिम की तरह अपना जीवन बिताया था . इसलिए अभिषेक के कारण इतना ठाठ- बाट देखकर उनका सीना गर्व से चोडा हो जाता था . सब रिश्तेदार जो कल तक उसके माता- पिता को पास बिठाने में भी गुरेज करते थे वे भी अब किसी भी दिन त्यौहार में बार- बार उन्हें आने का न्यौता देते थे . .


मिनी बस में महिमा की दीदी का पूरा परिवार महिमा के पति अरुण और उसका बेटा अखिल साथ में थे . बस में भी महिमा की माँ किसी और को मुन्ने को पकड़ने ही नहीं दे रही थी . अगर कोई उसे खिलाना भी चाहता था तो कुछ ही देर में कोई न कोई बहाना बना कर उसे वापिस गोद में उठा लेती. इतनी उम्र हो जाने के बावजूद उसकी माँ में पोता होने के बाद अजीब सी ताकत आ गई थी . दीदी की बेटी रचिता तो बहुत खीज रही थी . वापिस आकर अपनी मम्मी से शिकायत करने लगी ,
" मम्मी, नानी तो मुन्ने के आने के बाद से पागल सी हो गई है, किसी और बच्चे की तरफ तो उनका ध्यान जाता ही नहीं है . मेरा मन मुन्ने को पकड़ने को हो रहा था तो मुझे डांट कर वापिस भगा दिया कि तुमसे चलती बस में झटका लगने से गिर जाएगा . अब देखो न मम्मी, मै कोई छोटी थोड़ा न हूँ कालेज में पड़ती हूँ "


महिमा के बेटे अखिल ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा ,
" हाँ मासी , नानी को पता नहीं क्या हो गया है किसी और से तो अब ढंग से बात ही नहीं करती, बड़ी घमंडी सी हो गई है "


महिमा की दीदी सुमन ने उसको डांटते हुए कहा , " चुप करो , नानी को ऐसे थोड़ा न बोलते हैं , अभी मुन्ना बहुत छोटा है इसलिए कह रही है . तुम लोग सब आराम से अपनी- अपनी सीटों पर बैठकर थोड़ी देर सो जाओ वर्ना इतना लम्बा सफ़र कैसे तय होगा "

तभी महिमा का बेटा अखिल मम्मी- मम्मी कहता हुआ आया , " मम्मी, आपको पापा कब से नीचे चाय पीने के लिए बुला रहे है, सब लोग कब के बस से नीचे उतर गए है और आप कहाँ खोई हुई हैं "




देखते- देखते जैसे- जैसे समय बीतता गया अभिषेक की कंपनी दिन- दूनी रात- चौगुनी उन्नति करती गई . महिमा को अब मायके का घर भी अपना सा न लगता क्योंकि वहाँ वक्त से सब कुछ तो बदल गया था . पिताजी के सरकारी नौकरी समय की सादगी भरी छाप मिट गई थी और सब चीजों पर पैसे की चमक- दमक की परत चढ़ गई थी . यहाँ तक कि महिमा के माता- पिता के बात करने का अंदाज भी बदल गया था . महिमा को अब अपने ही घर में इतने ऐशों- आराम होने के बावजूद घुटन महसूस होती पर वह माता- पिता की वजह से चुप हो जाती .
एक बार अभिषेक का अपने पार्टनर के साथ पैसों को लेकर झगड़ा इतना बढ गया कि पुलिस केस बन गया .उसके पार्टनर का कहना था कि उसने अभिषेक से कुछ पैसे बकाया लेने थे पर वह उसका हिसाब करना ही नहीं चाहता था . बात हाथा - पाई तक पहुँच गई तो सारी रात सबने जाग कर बिताई थी . सबकी सलाह थी कि बेवजह दुश्मनी मौल लेने से तो अच्छा था कि अभिषेक समय रहते ही पार्टनर का हिसाब चुकता कर देता तो बात इतनी न बढती . पर इतना सब होने के बावजूद महिमा की माँ पुत्र मोह के कारण अभिषेक का कसूर मानने की बजाय उसके पार्टनर को ही बुरा भला कहने लगी. उसकी माँ के इस तरह के व्यवहार के कारण ही शुरू से ही अभिषेक की हिम्मत बढती आई थी और वह भी महिमा की माँ की शह की वजह से कभी भी अपना कसूर नहीं मानता था .
उस पुलिस केस के कारण अभिषेक और उसकी पत्नी को कई बार कोर्ट- कचहरी के चक्कर काटने पड़े पर फिर भी केस सुलझने के कोई आसार न थे क्योंकि उसका पार्टनर तो पूरी तरह बदला लेने पर उतारू था . पर अभिषेक के दिमाग पर तो पैसे कमाने का भूत इस कदर सवार था कि उसका मानना था कि पैसा हो पास में तो वह किसी को भी खरीद सकता है इसलिए अभिषेक ने अब अपनी खुद की अलग कंपनी बना ली थी . उसका काम दिन पर दिन बढता जा रहा था . महिमा के भाई की तरक्की की बातें यहाँ तक कि उसके ससुराल तक पहुँच गई थी .सब लोग अभिषेक से बहुत प्रभावित थे . अब उसका रहन - सहन सब कुछ तो बदल गया था . महिमा के ससुराल में तो अभिषेक के मुकाबले का कोई नहीं था . आए दिन नई- नई गाड़ियां खरीदना अभिषेक का शौंक था .


महिमा के घर के पास ही उसकी सहेली अदिति रहती थी जो उसके ही घर पर अभिषेक से मिल चुकी थी . उसके कानो तक भी महिमा के भाई की शान- शौकत की बातें पहुँच गई थी . एक दिन तो बहुत अजीब बात हुई जब अदिति महिमा के पास अपनी नौकरी की सिफारिश करने पहुँच गई और कहने लगी ,
" महिमा , तुम्हे तो पता है कि मेरे पति का काम कुछ ख़ास चलता नहीं है इसलिए आज कल बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है . मै भी घर पर सारा दिन बैठे- बैठे बोर हो जाती हूँ यदि तुम अपने भाई को मेरी सिफारिश कर देती तो तुम्हारा बड़ा अहसान होता "
महिमा भी बचपन से पढने लिखने में होशियार थी और साथ ही साथ खुद्दार भी थी इसलिए वह किसी तरह भी अपने भाई से भी कोई अहसान नहीं लेना चाहती थी . उसने अदिति को टालते हुए कहा ,
" ठीक है तूँ कुछ दिन रुक, मै बात करके खुद ही तुझे बता दूँगी "


महिमा को उस समय बहुत हैरानी हुई जब उसे अपनी दूसरी सहेली से पता चला कि अदिति ने तो अभिषेक की कंपनी में जाना भी शुरू कर दिया है . महिमा को तो मानो काटो तो खून नहीं, उसे मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था . कि न अभिषेक ने भी उससे कुछ बात करना मुनासिफ नहीं समझा . जब कई दिनों बाद महिमा की अभिषेक से बात हुई तो वह ऊपर से बड़े ही साधारण तरीके से कहने लगा ,
" महिमा क्या फर्क पड़ता है मुझे तो लोगो की जरुरत रहती ही है ,अगर अच्छा काम करेगी तो अच्छा ही है "
इस तरह कई दिन बीत जाने पर भी अदिति न कभी मुड कर उसके पास आई और महिमा के मन में इस तरह उसके लिए न चाहते हुए भी बड़ी कडवाहट भर गई कि लोग कितने मतलब खोर होते है .
धीरे- धीरे जैसे- जैसे समय बीतता गया महिमा के कानो में इधर- उधर से बातें पड़ने लगी कि जब से अदिति ने महिमा के भाई के यहाँ नौकरी की है उसके तो रंग- ढंग ही बदल गए है पहले कहाँ घर में खाने तक को न था और अब बहुत आधुनिक परिधान पहनने लगी है . मन ही मन महिमा को गुस्सा भी आता और हीन भावना की भी शिकार हो गई .
तब तो महिमा की बर्दाश्त ही खत्म हो गई जब उसके कानो में ये बात पड़ी कि अभिषेक अदिति को उसके घर तक छोड़ने आया है . आए दिन अदिति के बारे में कोई न कोई नई बात सुनने को मिल जाती थी कि महिमा के ये सब सुन- सुनकर कान पाक गए थे , वह इस बात से हर समय बेवजह ही परेशान रहने लगी .महिमा को पता था कि अभिषेक बहुत ही व्यवहारिक इंसान है, शादी भी उसने माता- पिता की पसंद से की थी और कभी किसी लड़की की तरफ आँख तक उठा कर नहीं देखता था . इस मामले में वह बहुत ही सख्त मिजाज का था . कई बार उसके मन में आया कि वह अभिषेक से इस बारे में बात करे पर उसे मालूम था कि वह उसकी किसी बात पर ध्यान नहीं देगा क्योंकि उसके दिमाग पर तो आज कल पैसा चढ़ गया है . अभिषेक महिमा से तीन साल छोटा था फिर भी वह महिमा को मौका मिलने पर कहने में कसर नहीं छोड़ता था कि तुमने इतना पढ़ - लिख कर भी कौन सा तीर मार लिया और उसका मन ही मन मजाक उड़ाया करता था . जबकि बचपन से महिमा अभिषेक से हर लिहाज में यहाँ तक कि पढने में भी काफ़ी आगे थी .इस कारण वह उसे अपने सामने नाकामयाब ही समझता था .
बात उस समय बहुत बढ गई जब उसके बेटे अखिल ने आकर एक दिन रात के समय बताया ,
" मम्मी, मामा- मामी बच्चों के साथ अदिति आंटी के घर आए हुए है , देखो मम्मी ,हमारे घर तो अब कभी आते नहीं है "
महिमा से रहा नहीं गया कि आज अदिति उससे ज्यादा हो गई तो उसी समय उसने अभिषेक को फोन कर दिया , " अभिषेक तुम्हे अपनी इज्जत का भी बिलकुल ख्याल नहीं आया . अदिति को नौकरी पर रखने से पहले भी तुमने मुझे पूछना जरुरी नहीं समझा ,मै कब से तुम्हारे साथ बात करना चाह रही थी . अदिति और उसके पति को आस- पास के लोग पसंद नहीं करते है . उसका चाल- चलन भी कुछ ठीक नहीं है. तुम्हे लोग खामख्वाह उसके कारण बदनाम कर रहे है. मै तो ये सब सुनते- सुनते तंग आ गई हूँ .तुम भगवान् के वास्ते उससे दूर ही रहो "


बस इतनी बात सुननी क्या थी कि अभिषेक तो बहुत भड़क गया और वहाँ से उलटे पाँव घर लौट गया . महिमा की माँ को जब ये सब बातें अभिषेक ने बताई तो हमेशा की तरह माँ ने अभिषेक का साथ ही दिया और महिमा को कसूरवार मानते हुए उससे बात तक करना बंद कर दिया . इस बात को जब तीन- चार दिन बीत चुके थे तो अभिषेक काफ़ी बीमार हो गया जैसे कि पहले भी जब उसका पार्टनर के साथ झगड़ा हुआ था तब भी वह काफ़ी बीमार हो गया था कि उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था . बस तब क्या? अचानक से महिमा की मम्मी का फोन आया और महिमा को कहने लगी ,
" महिमा , देखो अभिषेक तुम्हारी बातों की वजह से काफ़ी परेशान था और आज वह इतना बीमार हो गया कि उसे डाक्टर ने अस्पताल में भर्ती कर लिया है . उसे यदि कुछ हो गया तो मै जीवन भर तुम्हे मॉफ नहीं करुँगी , इसलिए बेहतर होगा तुम अपनी गलती मान लो और अभिषेक से माफ़ी मांग लो "
अपनी माँ की बातें सुनकर महिमा के पैरों तले से जैसे जमीन निकल गई हो . क्या भारतीय समाज में लड़का ही सब होता है लड़की का कोई मोल नहीं ?. औरत को बार- बार अपने औरत होने का मोल क्यों चुकाना पड़ता है ,मायका हो चाहे ससुराल , पुरुष प्रधान समाज में औरत को ही क्यों अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है? . उसे रह- रहकर पुत्र मोह के कारण भरी सभा में द्रौपदी चीर हरण की बातें याद आने लगी . क्यों बार- बार औरत के सम्मान का चीर हरण होता है? .

Saturday, 4 September 2010

प्रेम या वासना ?



अवंतिका को लेडी डाक्टर ने उसकी माँ की रिपोर्ट दिखाते हुए कहा ,
" अवंतिका, तुम्हारी माँ के पेट में रसोली है , जिसकी वजह से ही उनके पेट में दर्द रहता है . जल्द ही यदि इनका आपरेशन न किया गया तो यह कैंसर का रूप धारण कर सकता है "
डाक्टर की बातें सुनकर अवंतिका एक बार तो बहुत घबरा गई पर फिर उसने खुद को संभालते हुए डाक्टर से पूछा " डाक्टर साहिबा, ये रसोली किस वजह से बन गई है और आपरेशन के लिए कब का समय ठीक रहेगा . "
लेडी डाक्टर ने अवंतिका की बात के जवाब में कहा ,
" देखो रसोली होना भारतीय महिलाओं में काफ़ी आम है .वैसे तो इसमें कोई घबराने की बात नहीं होती पर समय से इसका इलाज करवाना जरुरी होता है . मासिक धर्म के दौरान गर्भाशय में एकत्रित खून कई बार पूरी तरह से बाहर नहीं आ पाता और अन्दर ही इकट्ठा होता रहता है और रसोली का रूप धारण कर लेता है . यह सब अंदरूनी कमजोरी की वजह से होता है . रसोली जब बड़ी होती जाती है तो इसे आपरेशन से बाहर निकालना जरुरी हो जाता है . भारतीय औरते खुद तो अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत लापरवाह रहती ही है और औरत के स्वास्थ्य को लेकर आदमी भी कई बातों से अनभिज्ञ रहते है . औरत एक माँ है इसलिए दोनों पति- पत्नी की बराबर की जिम्मेवारी होनी चाहिए तांकि भावी पीड़ी स्वस्थ रह सके . आपरेशन के लिए तुम आज शाम को अपनी माँ को दाखिल करवा दो और आपरेशन हम सुबह सात बजे करेंगे . बाकी सारी जानकारी तुम्हे काउंटर से मिल जाएगी ."
अवंतिका घर में बड़ी थी और कोई भाई न होने के कारण पिता जी के साथ हर छोटे- मोटे बाहर के कामो में हाथ बँटाती आई थी . जब फोन पर अवंतिका की बहिन अंकिता ने माँ की तकलीफ के बारे में बताया तो उससे रहा नहीं गया और अगली ही सुबह अपनी पांच वर्ष की बेटी को अपने पति प्रभाकर के पास छोड़कर मायके चली आई थी . प्रभाकर भी बहुत समझदार इंसान था और उसने अवंतिका के मन की हालत समझते हुए कहा था ,
" वहाँ तुम अपनी माँ को संभालोगी या फिर मेघा को इसलिए अच्छा होगा अगर इसे यहाँ मेरे पास छोड़ जाओ और जरुरत समझोगी तो मुझे फोन कर देना मै भी वहाँ आ जाऊँगा "
प्रभाकर की बातें सुनकर अवंतिका को बहुत तसल्ली मिली थी .
अवंतिका ने प्राइवेट नर्सिंग होम में अपनी माँ को आपरेशन के लिए दाखिल करवाने के लिए सारी औपचारिकताएँ पूरी की और अपनी बहिन अंकिता को वहाँ छोड़ कर जरुरी काम निबटाने के लिए बाजार चली गई .उसकी माँ ने उसे रोकते हुए कहा भी था , " अवंतिका , तुम अकेली क्या कुछ करती रहोगी, अंकिता को भी तो बाहर के कामो की जिम्मेवारी उठाने दिया करो "


अवंतिका कहने लगी , " नहीं माँ, कोई बात नहीं मै कर लूंगी और वैसे भी तुम्हारे पास बैठने को भी तो कोई होना चाहिए .और मै बाजार से सामान लेकर घर से होते हुए रात तक आ जाउंगी "
" नहीं अवंतिका. अब तुम रात को मत आना . घर पर ही पिताजी के पास रुक जाना . अंकिता तो है ही मेरे पास सुबह आ जाना . तुम भी थक गई होगी जब से आई हो भाग दौड़ में लगी हुई हो इसलिए घर पर आराम करना "
अवंतिका अपनी माँ को कहने लगी ,
" नहीं माँ , रात को मै ही तुम्हारे पास रुकूँगी, अगर किसी चीज की अचानक जरुरत पड़ी तो तुम्हे दिक्कत हो जाएगी और अंकिता घर पर पिताजी के पास चली जाएगी ."
यह कहते हुए अवंतिका बाहर निकल गई .
अवंतिका जब घर का सामान खरीद रही थी तो अचानक उसकी निगाह नरेन् पर पड़ी तो वह कुछ घबरा सी गई . पर उसे वह अनदेखा कर सामान खरीदने में व्यस्त रही . जैसे ही वह बिल देकर दुकान से बाहर निकल रही थी तो नरेन् पहले से ही बाहर खड़ा था . ऐसा लग रहा था जैसे वह उसका ही इन्तजार कर रहा था . वह ऊपर देखे बिना एक तरफ से तेजी से निकालने लगी तो नरेन् बिल्कुल उसके सामने आ गया . अवंतिका एक बार तो बिल्कुल झेंप सी गई कि क्या करे. वह सामने आ कर कहने लगा ,
" क्या बात अवंतिका बात नहीं करोगी मुझसे . कैसी हो और आजकल कहाँ पर हो "
अवंतिका उसकी किसी बात का उत्तर नहीं देना चाहती थी . नरेन् तो जैसे उसके पीछे ही पड़ गया मानो वो पहले से ही सोच कर आया था . वह बार- बार उससे आग्रह करने लगा . आखिर अवंतिका को अपना मुँह खोलना ही पड़ा . ," नरेन् , प्लीज मुझे परेशान मत करो और मुझे तुमसे कोई भी बात नहीं करनी . खामख्वाह तमाशा मत करो, सब लोग देख रहे है "
" मुझे पता है अवंतिका कि तुम मुझसे नफरत करती हो और क्यों ना करो, पर इंसानियत के नाते ही क्या मुझे अपनी बात कहने का मौका भी नहीं दोगी . प्लीज अवंतिका मुझे एक मौका देदो वरना मै चैन से जी नहीं पाऊंगा "
अवंतिका अब थोड़ा नर्म पड़ गई थी ,
" नरेन्, मेरी माँ का कल आपरेशन है इसलिए मै काफी व्यस्त हूँ "
" अवंतिका, मै तुम्हारे सिर्फ दस मिनट लूँगा और तुम्हे कोई परेशानी नहीं होगी . मै भी तुम्हारे साथ तुम्हारी माँ से मिलने चलूँगा और तुम्हे तुम्हारे घर छोड़ दूंगा "


पता नहीं फिर अवंतिका चाह कर भी नरेन् का कहा टाल नहीं सकी .
" चलो अवंतिका वहाँ पास में ही पार्क है , वहाँ चल कर बैठते है "
अवंतिका नरेन् से पहली बार उनकी कालोनी के एक प्रोग्राम में मिली थी . नरेन् वहाँ पर राजनैतिक तौर पर काफी सक्रिय था . वह उनकी कालोनी में होने वाले आजादी के दिवस के कार्यक्रम में बतौर मुख्य मेहमान शामिल होने आया था . अवंतिका शुरू से ही इस तरह के कार्यक्रमों में बढ- चढ़ कर हिस्सा लेती थी .बचपन से ही उसे नाचने का बहुत शौक था . छोटी- छोटी लड़कियों के प्रोग्राम तैयार करवाना और उन्हें सजाना- संवारना उसे बहुत पसंद था .
नरेन् उस क्षेत्र का जाना- माना नाम था . छोटी सी उम्र में ही उसने अपनी काबलियत के दम पर काफी सफलता हासिल कर ली थी . क्षेत्रीय चुनावों में तो हर बार उसकी जीत का परचम लहराता था . बड़े- बड़े नेताओं के साथ उसकी काफी घनिष्ठता थी .अवंतिका अपनी पढाई पूरी करने के बाद ही वहीँ पर ही एक बैंक की क्रैडिट कार्ड की शाखा में लग गई थी .
अवंतिका और नरेन् इस तरह के कई कार्यक्रमों में एक दूसरे को अक्सर मिलते रहते थे .नरेन् एक आकर्षक व्यक्तित्व वाला इंसान था . अवंतिका के मन में उसे देखकर एक अजीब सी कशिश पैदा होती थी . परन्तु घर की जिम्मेवारियों के चलते उसने अपने सामने भी अपनी भावनाओं को कभी उजागर होने का मौका नहीं दिया था . नरेन् के लिए उसके मन में जो भी भावना उठती वह उसे भीतर ही भीतर दबा देती. उधर नरेन् ने भी कभी औपचारिक बातों के अलावा अवंतिका से कोई और बात करने की कभी कोई कौशिश नहीं की थी .बेशक वे एक दूसरे से कभी ख़ास बात नहीं करते थे पर दोनों की नजरें एक दूसरे को ढूँढ़ते- ढूंढते हर बार आपस में जरुर टकरा जाती थी .
एक बार एक प्रोग्राम के बाद अवंतिका ने अपने बैकं के काम के सिलसिले में नरेन् से उसका फोन नंबर माँगा और कहने लगी कि वह आफ़िस से उसे फोन करेगी . मार्च का महीना लगभग आधा बीत चुका था . अवंतिका को अपना विदित टार्गेट पूरा करना था , इसलिए उसने सोचा कि नरेन् की तो काफी जान पहचान है तो क्यों ना उससे मदद ले ले .
अवंतिका नरेन् से फोन पर बात करते हुए काफी झेंप रही थी कि नरेन् पता नहीं उसके बारे में क्या सोचेगा , फिर भी उसने हिम्मत करके उसे फोन किया और अपने क्रेडिट कार्ड के टार्गेट के बारे में बताया तो नरेन् झट से आगे से बोला ,
" अवंतिका ,मुझे तुम्हारे आफ़िस के पास ही कुछ देर में किसी जरुरी काम से आना है, तुम अपने आफ़िस का पूरा पता बता दो, मै समय निकाल कर तुमसे मिलने आता हूँ "


इस तरह नरेन् ने उसके काम में ना सिर्फ उसकी मदद की बल्कि जब भी समय मिलता वह उसके आफ़िस उससे मिलने पहुँच जाता . अवंतिका के मन में नरेन् के लिए ख़ास जगह बन गई थी . वह इतना रुतबे वाला होने के बावजूद भी बहुत ही साधारण तरीके से रहता था. कभी भी उसने और लोगों की तरह फ़ालतू या बेहूदा बात नहीं की थी
.एक बार अवंतिका ने जब कुछ पूछने के लिए नरेन् को फोन किया तो वह कहने लगा ,
" अवंतिका तुम्हारे आफ़िस में बहुत भीढ़ रहती है और सब लोग अजीब तरीके से देखने लगते है इसलिए अगर तुम्हे ऐतराज ना हो तो आज कहीं बाहर बैठकर काफी पीतें हैं . तुम्हारे आफ़िस के पास ही एक महफ़िल रेस्टोरेंट है, क्यों ना वहाँ चल कर बैठे . अगर तुम ठीक समझो तभी "
अवंतिका उसका कहना ना टाल सकी और उसने हामी भर दी. जब अवंतिका वहाँ पहुँची तो देखा नरेन् पहले से ही उसका इन्तजार कर रहा था . दोनों जब बैठे तो बातों में उन्हें पता ही ना चला कि कब तीन घंटे बीत गए . अवंतिका को अपने आफ़िस में कुछ देर का काम था सो मजबूरन उसे वहाँ से ना चाहते हुए उठना पड़ा .
उस दिन के बाद तो जैसे दोनों अपने आप को रोक ना पाए और मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया . अगली बार तो नरेन् अपनी नई कार में अवंतिका को खुद उसके आफ़िस लेने के लिए पहुँच गया . अवंतिका ने नरेन् को खुद कभी कार चलाते हुए नहीं देखा था . उसके पास हर समय सरकारी गाडी और ड्राइवर रहते थे .
अवंतिका इससे पहले कभी किसी के साथ इस तरह गाडी में नहीं बैठी थी . नरेन् अवंतिका के गाडी में बैठते ही कहने लगा ,
" अवंतिका आज बहुत समय बाद सिर्फ तुम्हारी खातिर कार चलाई है और ड्राइवर को बहाना बना कर छोड़ कर आया हूँ "
दोनों कुछ दूरी पर ही एक पार्क में चल कर बैठ गए . . नरेन् ने अपना फोन वहाँ कार में ही छोड़ दिया क्योंकि वह अक्सर फोन पर बहुत व्यस्त रहता था . .वे दोनों एक कोने में घने पेड़ों के नीचे हरी घास में चल कर बैठ गए . कुछ देर तो दोनों प्राकृतिक माहौल में अपने विचारों के साथ ताल मेल बिठाते हुए खामोश बैठे रहे .अवंतिका तो बहुत असहज महसूस कर रही थी .फिर नरेन् ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा ,
" अवंतिका क्या सोच रही हो . इतना घबरा क्यों रही हो . तुम मुझे पहले दिन से ही बहुत अच्छी लगती थी पर कभी कह ना सका कि ना जाने तुम क्या सोच बैठो .एक तो राजनीति के कारण मै काफी व्यस्त रहता हूँ चाह कर भी समय निकालना मुश्किल हो जाता है ."
" अवंतिका हरा रंग तुम पर कितना खिल रहा है . तुम वाकई कितनी खूबसूरत हो . तुम्हारे लम्बे घने बाल , सिर पैर तक तुम खूबसूरती की मूरत हो . मै जीवन भर तुम्हारा साथ निभाना चाहता हूँ "

अवंतिका नरेन् की बातें सुनकर मन ही मन सिमट रही थी और जैसे उसकी जुबान को ताला लग गया हो. वह शर्म से लाल हो रही थी और उसकी सांस इतनी तेज चल रही थी कि उसकी आवाज साफ़ सुनाई दे रही थी.
अचानक नरेन् ने अवंतिका का हाथ अपने हाथ में ले लिया तो उसकी सांस तेज चलते- चलते जैसे एक दम से थम गई हो. अभी वह संभल भी नहीं पाई थी कि नरेन् ने धीरे- धीरे उसके पास सरकते- सरकते उसके गालों को चूम लिया . अवंतिका को ऐसे लग रहा था कि वह जैसे एक नदी की तरह बहती जा रही है . फिर अचानक उसके दिमाग में हरकत सी हुई तो उसने खुद को संभाला और इस डर से कि कहीं वह खो न जाए, वह एकदम से उठ खड़ी हुई यह कहते हुए ,
" नरेन्, बस अब चलते हैं काफ़ी देर हो गई है , घर पर सब इन्तजार कर रहे होंगे "
नरेन् अवंतिका को घबराया हुआ देख कर उसे हौंसला देते हुए बोला ,
" अरे ,डरो मत मै तुम्हे तुम्हारे घर तक छोड़ दूँगा "
उसके बाद कार में पूरे रास्ते अवंतिका नरेन् से नजरे न मिला पाई और उसकी किसी भी बात के जवाब में बस सर हिला देती . उसे लग रहा था कि जैसे उसका पूरा बदन अभी तक काँप रहा हो .
अवंतिका ने डर के मारे नरेन् को घर से दूर ही उतार देने को कहा और जैसे- तैसे वह अपने कांपते क़दमों को घसीटते- घसीटते अपने घर तक पहुंची .घर पर भी किसी से बात करने का उसका मन नहीं हो रहा था . अपनी माँ के पूछने पर अवंतिका कहने लगी ,
" कुछ नहीं माँ,सिर में दर्द है थोड़ी देर आराम कर लूँ फिर ठीक हो जाएगा "
यह कहकर वह अपने कमरे में जाते ही बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी और रह- रहकर नरेन् के साथ बीते पल उसके मन पटल पर घूम रहे थे . जैसे ही वह उस क्षण के बारे में सोचती एक अजीब सी सिरहन उसके पूरे बदन में उठती थी .
इस तरह लाख कोशिशों के बावजूद भी वह खुद को नरेन् के प्यार की गिरफ्त में पढने से रोक न पाई . अब तो हर समय सोते- जागते, उठते- बैठते बस नरेन् का ख्याल उसके मन में घूमता रहता . नरेन् तो जैसे अब उसकी जिन्दगी बन गया था . वे दोनों अब कभी पार्क में कभी रेस्टोरेंट में मिलने लगे . हालंकि नरेन् काफ़ी व्यस्त रहता था पर फिर भी वह अवंतिका को मिलने को व्याकुल रहता . बेशक वह अवंतिका को ज्यादा समय के लिए नहीं मिल पाता था . अवंतिका हर समय नरेन् को मिलने को बेचैन रहती .


नरेन् की शहर में काफ़ी जान पहचान थी इस लिए नरेन् ने एक बार अवंतिका से कहा कि इस तरह खुले आम मिलना काफ़ी खतरे से भरा है कि कहीं कोई मुसीबत न खड़ी हो जाए . अवंतिका खुद भी तो हर समय डरती रहती थी कि कहीं उसे नरेन् से साथ कोई जान पहचान वाला न देख ले . फिर नरेन् ने एक दिन अवंतिका से कहा ,
" मेरे एक दोस्त का फ़्लैट खाली पड़ा है मै उसकी चाबी ले लेता हूँ वहां पर किसी का डर नहीं होगा . मै तुम्हे वहाँ का पता बता देता हूँ तुम सीधे वहाँ पहुँच जाना ."
अवंतिका इतने समय में इतनी दूर निकल आई थी कि उसे खुद से ज्यादा नरेन् पर भरोसा हो गया था , इसलिए वह बिना हिचकिचाए नरेन् को मिलने वहाँ पहुँच गई . फ़्लैट में जब दोनों एक दूसरे के एक दम बेहद करीब बिलकुल अकेले थे तो किस तरह अपनी भावनाओं पर काबू रख सकते थे और इस तरह अवंतिका अपना सब कुछ नरेन् के सपुर्द कर बैठी .
अवंतिका ने जिस बात की कभी कल्पना भी नहीं की थी उस दिन के बाद नरेन् अवंतिका से कतराने लगा . खुद फोन तो क्या उसने अवंतिका के किसी भी फोन या मेसेज का जवाब तक देना बंद कर दिया . नरेन् ने तो जैसे न बोलने की कसम ही खा ली थी . अवंतिका के किसी भी सवाल का वह जवाब न देता . अवंतिका तो जैसे पागल सी होने को हो गई. भोली -भाली अवंतिका की समझ में कुछ न आता कि ऐसी क्या वजह या मजबूरी हो गई कि नरेन् ने एक दम चुप्पी धारण कर ली .कम से कम वह कोई कारण तो उसे बताता तो वह खुद ही उसके रास्ते से हट जाती .दिन रात उसको यही बात अन्दर ही अन्दर खाती रहती. उसको मन ही मन खुद से भी नफरत होने लगी कि क्या नरेन् का मकसद सिर्फ उसके जिस्म को पाना ही था . क्या नरेन् पर विश्वास करने का उसे ये सिला मिला कि वह किस तरह उसे इस्तेमाल करके बेवकूफ बना कर फैंक कर चला गया .
अवंतिका एक दम से चुप- चाप रहने लगी . अब किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेना तो दूर की बात वह अब कहीं न जाती . बस घर से आफिस और सारा दिन मन ही मन घुटते रहना यही उसकी दिनचर्या बन कर रह गई थी . वह तो जैसे एक जिंदा लाश सी बन गई थी .इतना सब कुछ होने पर भी उसे नरेन् का इन्तजार रहता कि शायद वह उसके पास लौट आए . पूरा एक वर्ष लगा उसे नरेन् की यादों से खुद को बाहर निकालने में .
फिर प्रभाकर से उसकी शादी हो गई और उसने खुद को पूरी तरह अपनी घर गृहस्थी के हवाले कर दिया .प्रभाकर ने भी अवंतिका को कभी किसी तरह की कोई कमी महसूस न होने दी थी .अवंतिका अपने सब फर्ज पूरा करती पर किसी से भी न कोई उम्मीद करती न ही किसी से कोई शिकायत करती . .
आज नरेन् फिर से इतने वर्षों बाद उसके सामने आकर खड़ा हो गया था . उसके मन मस्तिष्क पर नरेन् को देखकर पुरानी यादें फिर से उमड़ने लगी .


पार्क में एक तरफ वे दोनों एक बैंच पर जाकर बैठ गए. अवंतिका काफ़ी परेशान हो रही थी कि नरेन् जल्दी से जो कहना है वह कह डाले . कुछ देर जब नरेन् कुछ न बोला तो अवंतिका को ही आखिर बोलना पड़ा ,
" देखो नरेन् मेरे पास न तो ज्यादा वक्त है न ही मेरी कोई दिलचस्पी है तुम्हारी बातें सुनने में , क्योंकि बीती बातें उखेड़ने से अब क्या लाभ ? "
नरेन् मन ही मन काफ़ी बेचैन सा लग रहा था पर जैसे उसने मन में ठान रखा हो कि अपनी बात कहकर ही मानेगा , नरेन् ने कहना शुरू किया ,
" अवंतिका मुझे पता है तुम मुझसे नफरत करती हो और क्यों न करो मै तुम्हारा गुनाहगार हूँ . मै तो तुम्हारी माफ़ी का भी हकदार नहीं हूँ . मैंने जो तुम्हारे साथ किया था तुमने तो कभी मुड़कर मुझसे कोई शिकायत नहीं की थी पर मुझे मेरे किए की सजा भगवान् ने दे दी है "
" नरेन् अच्छा होगा तुम ज्यादा पहेलियाँ मत बुझाओ क्योंकि मुझे मेरी माँ के पास जल्द पहुँचना है , अच्छा होगा तुम जल्दी अपनी बात समाप्त कर दो "
" अवंतिका तुम्हे क्या पता मै कितने समय से तुम्हारा इन्तजार कर रहा था . मेरे दिल पर कब से एक बोझ था , हर समय, हर जगह मेरी नजरें तुम्हे तलाशती रहती थी . हर रोज सुबह उठकर भगवान् से यही प्रार्थना करता था कि काश तुमसे मुलाक़ात हो जाए और आज भगवान् ने मेरी सुनली "
अवंतिका ने उसे बीच में टोकते हुए कहा , " नरेन् अब इन बातों का क्या फायदा मै बहुत पहले सब बातों को भूल चुकी हूँ और साथ में बीता हुआ समय तो दोबारा वापिस आने से रहा "
" नहीं अवंतिका, अगर आज मै अपना मन हल्का न कर पाया तो तमाम उम्र सकून से जी नहीं पाऊंगा . प्लीस ,मुझे रोको मत , मै उस समय अपने पद और रुतबे के नशे में अँधा हो गया था . मुझे अपनी कुर्सी से बहुत प्यार था और उसी कुर्सी के लालच ने मुझे सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया , हमारे क्षेत्र के मंत्री जी मेरे काफ़ी करीब थे उन्होंने एक दिन अपनी बेटी के लिए मेरा हाथ मांग लिया और यह सोचकर मै इन्कार न कर सका कि इतने बड़े नेता का दामाद बनना तो बहुत सौभाग्य की बात है . . मेरी पत्नी मंजुला विदेश में ही बचपन से पली- बढ़ी थी इसलिए उसके रंग- ढंग भी पूरे विदेशी ही थे .
मंत्री जी को मैंने दामाद का फर्ज निभाते हुए चुनावों में भारी विजय दिलवाई थी .उनके लिए मैंने रात- दिन एक कर दिया था . मंजुला के रंग- ढंग तो बस मेरी बर्दाश्त के बाहर होने लगे पर मेरी फिर भी क्या मजाल थी कि मंत्री की बेटी से कुछ कहता . वह ज्यादा समय तो विदेश में ही रहती और पूरी तरह अपनी मन मानी करती . जब इस बारे में मैंने अपने ससुर से बात करनी चाही तो उन्होंने जैसा कि उम्मीद थी अपनी बेटी की ही हिमायत की . मंजुला को मेरा कोई भी बात कहना बिलकुल बर्दाश्त नहीं था . बाप- बेटी दोनों मुझे अपने इशारों पर नचाना चाहते थे . जब मैंने जरा सा विरोध किया तो मंत्री ने दूध में से मक्खी की तरह मुझे बाहर निकाल फैंका .जो इज्जत, पैसा, शोहरत मैंने अपने बलबूते पर कमाए थे वो भी ख़ाक हो गए . बस उस मंत्री ने मुझे सड़क पर लाकर बैठा दिया , मुझे उस समय तुम्हारी याद आई कि जो मैंने तुम्हारे साथ किया भगवान् ने मुझे उसका फल दे दिया ".
अवंतिका, मुझे अपने किए पर बहुत पछतावा है इसलिए मै पश्चाताप करना चाहता हूँ "
नरेन् की बातें सुनकर अवंतिका भी भावुक हो गई और कहने लगी ,
" नरेन् मैंने तुम्हे सच्चे दिल से प्यार किया था और तुम्हे भुलाने में मुझे बहुत वक्त लगा था पर आज मेरी अलग दुनिया है . मेरी एक बेटी है और बहुत प्यार करने वाले पति है . रही बात माफ़ी की तो तुम्हारा प्रायश्चित ही तुम्हारी माफ़ी है .'
नरेन् के बस आंसू नहीं निकले पर वह बहुत ज्यादा भावुक हो रहा था यह कहते- कहते "अवंतिका , तुम्हे खो देना मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी इसलिए मै आजकल तुम्हारे वाले बैंक में ही नौकरी करने लगा हूँ . वहाँ पर काम करने से मुझे अजीब सा सकून मिलता है . अब तो तुम्हारे साथ बिताए वो हसीन पल ही मेरे जीने का सहारा है और तुम्हारी यादें मेरे साथ मरते दम तक रहेगी "
इतने में अवंतिका उठ खड़ी हुई ये कहते हुए , " अच्छा नरेन् मेरे हिसाब से अब मुझे चलना चाहिए, वक्त काफ़ी बीत चुका है "

Monday, 2 August 2010

मिथ्याभिमान



जब उन दोनों ने जन सुविधा के कैम्प में प्रवेश किया तो देखा वहाँ बहुत भीड़ थी और एक स्टेज पर शहर की जानी मानी हस्तियाँ विराजमान थी .अनामिका बेशक कभी किसी को निजी तौर पर मिली नहीं थी पर उसे बचपन से ही अखबार पड़ने का शौक था इसलिए वह कुछ ख़ास लोगों को पहचानती थी .
अनामिका और नेहा टैंट के भीतर लगी हुई कुर्सियों पर जाकर बैठ गई और अपनी बारी का इन्तजार करने लगी .एक तरफ टैंट में सरकारी अधिकारियों से काम करवाने वालों की भीड़ थी तो उधर दूसरी तरफ स्टेज पर माइक में बार- बार कुछ न कुछ घोषणा की जा रही थी और कुछ स्थानीय नेता बारी- बारी से अपना भाषण दे रहे थे. अनामिका ने देखा कि स्टेज में बैठे लोगों में से सिर्फ दो ही औरतें हैं .

यह सब देख कर उसे अपने कालेज के दिन याद आ गए.. वह अपने कालेज के होनहार विद्यार्थियों में से एक थी और हर गतिविधियों में बढ़चढ़ कर भाग लेती थी .और स्टेज पर चढ़कर भाषण देने का तो उसे ख़ास शौक था . किसी भी विषय पर वह ऑन दी स्पाट ही एक भाषण तैयार कर लेती थी . उसकी बुद्धिमता के कारण अध्यापक गण उसकी शरारतों को ना सिर्फ नजर अंदाज कर देते थे बल्कि वह उनकी प्रिय शिष्या भी थी .

मगर जैसे ही कालेज की पढाई खत्म हुई वैसे ही वह जयंत के साथ विवाह बंधन में बंध गई .धीरे- धीरे वह दिन प्रतिदिन अपनी घर - गृहस्थी में उलझती गई .बच्चों की परवरिश और घर की जिम्मेवारियां संभालते- संभालते वह समय से पहले ही अपनी उम्र के हिसाब से बड़ी दिखने लगी .परिपक्वता आने की बजाय उसमे एक खालीपन सा समाने लगा .उसे ऐसा लगता कि वह केवल एक त्याग की मूर्ति बन कर रह गई है .उसका जीवन व्यर्थ बीतता जा रहा था . उसके बचपन से लेकर जवानी के सपने सब मिट्टी में मिल रहे थे. वह देश और समाज को लेकर कितनी बड़ी- बड़ी बातें किया करती थी . वह अपने जीवन को एक नया आयाम देना चाहती थी, अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहती थी , कुछ कर दिखाना चाहती थी . उसे लगने लगा था कि श्रीमति जयंत के अलावा उसकी अपनी खुद की तो कोई पहचान है ही नहीं . मगर घर के संकीर्ण माहौल और जयंत के दकियानूसी विचारों के कारण वह खुद को बहुत असहाय महसूस करती थी .वह बहुत उर्जावान और जोशीली थी मगर वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही थी . अच्छा खासा खुशहाल परिवार होने के बावजूद उसे एक कमी सी महसूस होती थी

इसी दौरान जब वह अपनी दोनों बेटियों की पढाई को लेकर बहुत व्यस्त थी कि एक दिन उसे अपनी सहेली नेहा के कहने पर एक जन सुविधा कैम्प में जाना पड़ा . नेहा को अपना पहचान पात्र बनवाना था . उसके लिए उसे क्षेत्र के विधायक महोदय से हस्ताक्षर करवाने थे. नेहा का बचपन एक छोटे से गाँव में बीता था इसीलिए वह बात करने में मन ही मन घबरा रही थी और अनामिका से कहने लगी कि तुम मेरा एक काम कर देना . मेरे लिए इस प्रार्थना पात्र पर विधायक महोदय के हस्ताक्षर करवा लाना . अनामिका उससे मजाक करते हुए कहने लगी क्यों मै कोई यहाँ पर सब को जानती हूँ और तुम तो यहाँ इस शहर में कई सालों से रह रही हो और मै तो अभी नई- नई आई हूँ किसी को ख़ास जानती भी नहीं .

जैसे ही नेहा के नाम की घोषणा हुई तो वह उठ खड़ी हुई और अनामिका से भी अपने साथ चलने को कहने लगी , " अनामिका, तुम चलो न मेरे साथ, मै तो वहाँ जाकर कुछ बोल भी नहीं पाउंगी समझाना तो बहुत दूर की बात है .
अनामिका उसका आग्रह टाल नहीं सकी . यूँ तो वह बचपन से ही आत्मविश्वास से भरी थी .और अपनी बात कहने में तो उसे अजब सी महारथ हासिल थी . उसने नेहा से उसके कागज़ लेकर खुद पकड़ लिए और स्टेज पर जाकर विधायक महोदय को औपचारिकता वश अभिवादन कर पहचान पत्र बनाने में आने वाली कठनाइयां समझाने लगी . ," सर, आप तो जानते हैं कि आम आदमी को अपना कोई भी काम करवाने में कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है , ये सरकारी मुलाजिम कहाँ किसी की बात इतनी आसानी से सुनते हैं . कितने- कितने चक्कर काटने पड़ते है एक मामूली से काम के लिए फिर ऊपर से इन सरकारी मुलाजिमों की जब तक जेब गर्म न करो तो कोई काम नहीं बनता . अगर कोई बेचारा इन लोगों को पैसे देने की हैसियत ना रखता हो तो उसकी तो इन चक्करों में चप्पले भी टूट जाती है और काम फिर भी नहीं बनता. सर अगर आप इन कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर देते तो मेरी सहेली का काम आसानी से हो जाता . "

विधायक महोदय उसकी वाक् कुशलता से इतने प्रभावित हुए कि एक मिनट की देरी किए बिना उन कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए . अनामिका ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी . बस फिर तो उसका आत्मविश्वास और भी बढ गया और विधायक महोदय को लोगों को पेश आने वाली अन्य समस्याओं से अवगत करवाने लगी . उसकी बात सुनकर विधायक महोदय बोले ,
" मैडम , मै आपकी सभी बातों से शत प्रतिशत सहमत हूँ परन्तु बेहतर होता यदि आप अपने विचार वहाँ माइक पर जा कर व्यक्त करती जिससे सभी अफसर गण भी इन बातों को जान पाते . हमे आप जैसे लोगों की ही तो जरूरत है जो समाज और देश के लिए इतनी चिंता करते है और कुछ कर दिखाने की क़ाबलियत भी रखते हैं . "

विधायक महोदय की बातें सुनकर एक बार तो वह कुछ देर के लिए हिचकिचाई कि कहीं कुछ गलत न हो जाए . मन ही मन सोचने लगी कि इतने जाने माने लोग इस सभा में बैठे है कहीं उसका मजाक ही न बन जाए . उसकी सहेली नेहा जो उसके साथ खड़ी सब बातें सुन रही थी उसने भी उसका हौंसला बढाया और कहने लगी," जा अनामिका बोल दे अपने मन की बातें . अरे तूँ तो कालेज के समय से ही भाषण देना जानती है . फिर अनामिका ने मन ही मन अपने को तैयार कर लिया . क्योंकि विधायक महोदय की बात को वह टालना भी नहीं चाहती थी ." .

मंच पर जाकर सबसे पहले उसने विधायक महोदय का धन्यवाद किया और फिर अपनी हिचकिचाहट को दूर करते हुए लोगों को रोज मर्रा पेश आने वाली समस्याओं का खुलासा करने लगी .जिस आत्मविश्वास के साथ उसने अपनी बात रखी उससे सभी लोगों ने तालियाँ बजा कर उसका हौंसला बढाया . यह सब देखकर मंच पर विधायक महोदय के साथ मौजूद महिलाएँ मन ही मन कुछ विचलित सी नजर आ रही थी क्यूंकि शायद उनमे से कोई भी इतनी पढ़ी लिखी नहीं लग रही थी .जब अनामिका ने अपना भाषण ख़त्म किया तो विधायक महोदय ने उसे अपने पास बुलाया और उसका संक्षिप्त परिचय लेते हुए उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहने लगे , " बेटे तुम तो बहुत अच्छी वक्ता हो ये सब तुम्हारे पढ़े लिखे होने का संकेत है , अब मेरी इच्छा है कि तुम अपनी प्रतिभा घर बैठ कर व्यर्थ मत गवाओं .भगवान् तुम्हे खूब कामयाबी दे ."
वह दिन ना सिर्फ उसकी प्रेरणा का दिन था बल्कि उस दिन से उसके जीवन में एक नया मोड़ आ गया .उस दिन के बाद उसने कभी मुड कर पीछे नहीं देखा . अपनी मेहनत और काबलियत के बलबूते पर वह दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करती गई. धीरे- धीरे कर उसने राजनीति में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया . अपने एरिया के विकास को लेकर उसने कई कार्यक्रम आयोजित करवाए . जिसमे उसने ना सिर्फ शहर के गण्यमान्य व्यक्तियों को बल्कि विधायक महोदय को ख़ास तौर पर आमंत्रित किया . अनामिका में एक नेता होने के सारे गुण विद्यमान थे . इस तरह विधायक महोदय के आशीर्वाद से शहर में उसका नाम जाने पहचाने लोगों में आने लगा .
एक औरत होने के बावजूद भी उसमे पुरुष प्रधान समाज में अपनी काबलियत के बलबूते पर पुरुषों के साथ कंधे के साथ कन्धा मिलाकर चलने की अद्वितीय क्षमता थी . जयंत अनामिका की क्षमता से प्रभावित अवश्य थे पर कहीं न कहीं काम्प्लेक्स के शिकार भी थे. अनामिका कदम- कदम पर उम्मीद करती थी कि उसके पति उसका भरपूर साथ दे . उसका मानना था कि जितना सत्य ये है कि हर कामयाब पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है उससे भी बड़ा सच है कि एक औरत को कामयाब होने के लिए भी अपने पति के साथ और विश्वास की जरूरत होती है .एक दिन बातों- बातों में अनामिका ने अपने मन की बात जयंत के सामने रख दी , ' जयंत तुम्हे तो पता है कि विधायक महोदय मेरी प्रतिभा से कितने प्रभावित है इसलिए मै राजनीति को अपना लक्ष्य बनाना चाहती हूँ "
जयंत ने उसकी पूरी बात सुने बिना ही बीच में बोलना शुरू कर दिया , ' तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है , क्या तुमने देखा नहीं कि इस क्षेत्र के लोग कितने गंदे ,भ्रष्ट और मतलबी होते है .कितनी औरते है जो घर से बाहर निकलती है . सब कार्यक्रमों में आदमी ही ज्यादा होते है "
अनामिका से भी रहा न गया , " चाहे हमारा समाज कितनी भी तरक्की कर ले पर तुम मर्द लोग दोहरा जीवन जीते हो. बाहर काम करने वाली महिलाएँ वैसे तो तुम्हे बहुत लुभाती है और अपनी पत्नी के पैरों में बेड़िया डाल कर रखना चाहते हो"

हमारे समाज में तबदीली कैसे आएगी , " देख नहीं रहे हो आज कल तो हर क्षेत्र में महिलाएँ काफ़ी उच्च पदों पर आसीन है "
मगर जयंत कहाँ मानने वाला था ? अनामिका की किसी भी दलील का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था .कदम- कदम पर जयंत के शक्की स्वभाव और सकीर्ण विचारधारा ने अनामिका की जिन्दगी में कुछ कर दिखाने की इच्छा को पूर्णविराम लगा दिया था .जब वह नौकरी करना चाहती थी तो जयंत ने उसे अपनी इच्छा अनुसार नौकरी नहीं करने दी थी . जयंत की हर बात पर टोकने की आदत से अनामिका बहुत दुखी होती थी कि ये मत करो, ये कपडे मत पहनो . जबकि अनामिका अपनी घर गृहस्थी की जिम्मेवारियों में भी कोई कमी नहीं आने देती थी . पूरे तन- मन से हर काम वह भली- भांति निबटाना जानती थी .घर के काम- काज को लेकर अनामिका ने जयंत को कभी भी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया था . बावजूद .समय- समय पर अनामिका जयंत की विचारधारा में परिवर्तन लाने का भरसक प्रयास करती थी . कभी जब जयंत अच्छे मूड में होता तो वह फिर से कोशिश करने लगती, " जयंत तुम तो इस बात को अच्छी तरह से जानते हो कि आज कल औरतें अपने घर से दूर जाकर यहाँ तक कि विदेश में जाकर भी नौकरी करती हैं , बड़े- बड़े उद्योग धंधे संभालती है . पता नहीं तुम किस मिट्टी के बने हो जो आज भी बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो तुम्हे तो ५० वर्ष पहले पैदा होना चाहिए था . मेरा घर में खाली बैठे- बैठे दम घुटने लगता है ."
जयंत अनामिका की बातें एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था

अनामिका दिन पर दिन राजनैतिक गतिविधियों में उलझती जा रही थी .हर दिन उसे किसी न किसी कार्यक्रम में जाना पड़ता था . कभी कभार अनामिका मना कर जयंत को भी साथ ले जाती थी .पर वहाँ मीटिंग में ज्यादा तर आदमी ही होते थे यह देख कर जयंत मन ही मन घुटता रहता था ..वह हर किसी को शक की निगाहों से देखता कि उनकी कू- दृष्टि अनामिका पर पड़ रही है .

इस तरह जयंत अपने सकीर्ण विचारों के कारण अपनी बेचैनी से अनामिका को भी बहुत असहज सा बना देता था जिससे वह भी मन ही मन कोई कमी सी अनुभव करती और किसी मुद्दे पर भी किसी से खुल कर बात ना कर पाती .अनामिका इतने बड़े शहर के विश्विद्यालय में पड़ी लिखी थी जहां पर लड़के लडकियां साथ उठते बैठते थे साथ साथ घूमने भी जाते थे , इसलिए इस तरह का जयंत का व्यवहार उसे बहुत ही अटपटा सा लगता था . वह जयंत को समझाते हुए कहते थी , " आज कल दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है और औरते तो आजकल हर क्षेत्र में आगे हैं , और जब तक वह अपने विचारों में दृढ़ है किसकी हिम्मत है जो वह उससे किसी प्रकार की कोई बेफजूल बात कर सके . बस आप शांत रहे और अपने दिमाग में उत पतंग बातें मत लेकर आया करें " अनामिका के इतना समझाने के बावजूद भी जयंत खुद को परिपक्व नहीं बना पता था और कहना लगता , " चलो बस अब बहुत हो गया और यहाँ से अब चलते हैं "
अनामिका मन ही मन जयंत के व्यवहार से बहुत दुखी होती और उसके साथ उसे मजबूरी वश कार्य क्रम बीच में ही छोड़कर वापिस आना पड़ता .


कभी- कभी तो ऐसा होता था कि यदि जयंत अपने काम की वजह से अनामिका के साथ किसी कार्यक्रम में नहीं जा पाता था तो काम पर भी उसके दिमाग में शक के बीज पनपते रहते थे.और यदि वह उसके साथ जाता भी तो वह उसे बहुत ही असहज अवस्था में डाल देता था .अनामिका को जयंत के साथ होने पर यही लगता था कि जयंत का ध्यान उस पर ही होगा कि वह किससे बातें कर रही है और मन में यही सोच रहा होगा कि आस- पास के लोगों की क्या प्रतिक्रिया है . इस कारण अनामिका बिलकुल भी सहज होकर किसी के साथ स्वतंत्रता से बात नहीं कर पाती थी .वह जयंत के वहाँ होने से बहुत घुटन महसूस करती थी , एक तरफ तो उसके पास जीवन में कुछ कर दिखाने का एक स्वर्णिम अवसर था तो दूसरी और जयंत के स्वभाव में अप्राकृतिक सा परिवर्तन उसकी राह में रोड़ा बन रहा था . कभी- कभी तो वह हताश होकर बैठ जाती थी , पर वह बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थी और अपनी काबलियत पर प्रश्न चिन्ह लगना भी उसे गवारा नहीं था .वह अपनी घर गृहस्थी की जिम्मेवारियों में भी कोई कमी नहीं आने देती थी . पूरे तन- मन से हर काम वह भली- भांति निबटाना जानती थी .घर के काम- काज को लेकर अनामिका ने जयंत को कभी भी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया था .
स्थानीय राजनैतिक स्तर पर उसकी गहरी पैठ होती जा रही थी .विरोधी पक्ष के लोगों को भी उसमे खामियां ढूँढने पर भी नहीं मिलती थी और वह भी उसकी तारीफ़ किए बिना न रहते .इस तरह समाज के लिए कुछ करने में उसे एक अलग तरह की आत्म संतुष्टि मिलती और उसे लगता कि उसका जीवन व्यर्थ नहीं जा रहा है . पर मन का एक कोना अभी भी रिक्त सा रहता . उसे इस बात की पीड़ा हर समय मन ही मन खाती रहती कि वह चाहे कितनी ही अच्छी तरह कोई भी काम क्यूँ न कर ले चाहे घर का हो या राजनैतिक क्षेत्र का पर जयंत ने कभी अपना मुँह खोल कर उसकी तारीफ़ नहीं की . बाहर वाले लोग उसके काम की तारीफ़ करते नहीं थकते थे और उसके साथ- साथ हर कार्यक्रम में जयंत को पूरा मान सम्मान मिलता , पर सबके बावजूद जयंत हर समय गम सुम सा ही रहता . वह हर समय जयंत की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखती रहती कि वह कभी अपना प्यार भरा हाथ उसके सर पर रखे और उसकी हिम्मत बढाये , आखिर वह थी तो एक औरत ही , जो बाहर से बेशक जितनी भी सशक्त नजर आए पर अपने पति के प्यार भरे स्पर्श के लिए मन ही मन तरसती रहती . वह दिन पर दिन लोगो में लोक प्रिय होती जा रही थी . क्षेत्र के विधायक महोदय की तो वह बहुत चहेती बन गई थी क्योंकि जब भी कोई कार्य भार उन्होंने उसे सौंपा था तो पूरे तन- मन से वह उनकी उम्मीदों पर खरा उतरती थी . उस दिन तो अनामिका के पाँव जमीन पर नहीं लग रहे थे . उसे लग रहा था जिस सपने को वह बचपन से देखती आई है वह उसके बहुत करीब आ गया है . वह तो मानो आसमान में उड़ रही थी . विधायक महोदय ने खुद उसे यह खुशखबरी सुनाई थी कि अगले माह दिल्ली में होने वाली पार्टी की मीटिंग में उसे भी शामिल होना है , पार्टी ने उसे ख़ास तौर पर महिला विंग के प्रधान का कार्य भार सौंपा था . वह मन ही मन सोच रही थी कि उसकी बरसो की मेहनत और तपस्या का फल मिलने वाला है . परिजनों में अब उसकी धाक मच जाएगी . जो परिजन उस पर तरस खाया करते थे और मन ही मन उसका मजाक उड़ाया करते थे वह उनको दिखा देगी की आखिर उसकी काबलियत का मौल पड़ ही गया . वह बड़ी बेसब्री से जयंत के आने का इन्तजार करने लगी , वह उसे खुश खबरी सुनाने के लिए बहुत बेताब हो रही थी .
जैसे ही वह खबर अनामिका ने जयंत को सुनाई तो उसके चेहरे पर एक भाव आ रहा था तो एक भाव जा रहा था फिर कुछ क्षण पश्चात वह एकदम से उग्र हो गया और तमतमाते हुए बोलने लगा , " तुम्हारा दिमाग खराब तो नहीं हो गया , अगर तुम्हे स्थानीय प्रोग्रामों में आने जाने की इजाजत दे दी तो इसका मतलब तुम्हे कुछ भी करने की आजादी मिल गई . अब तुम इतनी बड़ी नेता बन गई हो जो शहर से बाहर जाने का भी सोचने लगी . तुम्हे फिर भी जाना हो तो जाओ पर यह उम्मीद न करना कि मै तुम्हारा बाडीगार्ड बन कर तुम्हारे साथ चलूँगा और एक बार कदम दहलीज के बाहर निकालने के बाद फिर दोबारा इस घर की तरफ मुड कर मत देखना " यह कहकर जयंत पैर पटकते हुए घर से बाहर चला गया .
अनामिका उसकी बातें सुनकर मानो आसमान में उड़ते- उड़ते जमीन पर आ गिरी हो .


Tuesday, 6 July 2010

समर्पण




मीनाक्षी को सुचेता से मिले अभी एक वर्ष ही बीता होगा परन्तु इतने कम समय में भी उनमे घनिष्टता इतनी हो गई थी मानो बचपन से ही एक दूसरे को जानती हो . सुचेता पहली बार मीनाक्षी से किसी काम के सिलसिले में उसके घर पर मिलने आई थी. सुचेता को किसी से मालूम पड़ा था कि मीनाक्षी कई वर्षों से वहाँ पर राजनैतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय है इसलिए कोई भी काम होता तो वह मीनाक्षी के पास आ जाती थी .वैसे भी सुचेता अपने पति और बच्चों के साथ नई- नई उस जगह पर रहने आई थी इसलिए उसकी ख़ास किसी से ख़ास जान- पहचान नहीं थी . मीनाक्षी ने उसके कई छोटे- मोटे काम करवा कर दिए थे इसलिए सुचेता के मन में मीनाक्षी के लिए ख़ास जगह और सम्मान था .

धीरे- धीरे उनकी दोस्ती गहरी होती गई क्योंकि एक तो दोनों हमउम्र थी और घर की परिस्थितियाँ एक जैसी होने से वे एक दूसरे से दिल खोल कर बातें कर लेती थी . दोनों का मायके का माहौल काफी स्वच्छंद था , बिरादरी भी मेल खाती थी और ससुराल का माहौल अपेक्षाकृत काफी संकुचित था . दोनों की बातचीत का मुद्दा भी अक्सर घर की परेशानियों को लेकर ही होता था .यद्यपि मीनाक्षी अपने कार्य क्षेत्र में काफी व्यस्त रहती थी और किसी से ज्यादा बात नहीं कर पाती थी परन्तु पता नहीं ऐसा क्या था कि वह जब भी समय मिलता था अपने दिल की हर बात सुचेता से कर लेती थी.

मीनाक्षी की विचारधारा को सुनकर अक्सर सुचेता कहती थी ," मीनाक्षी , तुम बहुत ही गुणी होने के साथ साथ दूसरों की हमदर्द भी हो . तुम्हारे विचार इतने परिपक्व और स्वच्छंद है ."

मीनाक्षी उसकी बात का उत्तर देते हुए कहती थी ," क्या करूँ सुचेता मुझे अपनी उम्र के हिसाब से जीवन का गहरा अनुभव हो गया है और दुनिया को बहुत नजदीक से देखा है मैंने . शायद यही कारण है कि मै किसी पर विश्वास नहीं कर पाती और अपने दिल की बातें खुल कर नहीं कर पाती ."
.जब भी वे मिलती तो अक्सर आम औरतों की तरह ही अपने पतियों की खामियां निकालने लगती. मीनाक्षी सुचेता से अपने मन की बात बताते हुए कहने लगती , " कमल कभी भी मेरी भावनाओं को समझ नहीं पाए. मैंने उनसे कभी भी बड़ी- बड़ी खुशियों की उम्मीद नहीं की पर उन्होंने कभी भी कहने के वास्ते भी मुझे ऐसी कोई ख़ुशी नहीं दी जिसे मै अपने जीवन की मीठी याद के रूप में संझो सकूँ ."

सुचेता उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती थी ," मीनाक्षी तुम सही कहती हो यहाँ भी यही हाल है मेरे पति भी ऐसे ही हैं बस एक मशीन से ज्यादा मुझे कुछ नहीं समझते जैसे हम इंसान न हो कर एक चलता फिरता पुर्जा हों ,और जैसे भावनाएं तो कोई मायने नहीं रखती .बस घर, बच्चों को संभालना और फिर बिस्तर पर भी हँसते- हँसते उनकी इच्छा पूरी करो और अपनी तकलीफ बताने का तो कोई हक़ ही नहीं है हमे .जब देखो मेरे मायके वालो पर कटाक्ष करते रहते हैं . कई बार तो मन इतना परेशान हो जाता है कि दिल करता है कि सब कुछ छोड़ कर कहीं चले जाऊं पर इन मासूम बच्चों का ध्यान करके सब्र का घूँट पीना पड़ता है ."

इस तरह दोनों सहेलियां जब भी समय होता तो एक दूसरे से मन की बातें कर अपने आप को हल्का महसूस करती और फिर से अपनी घर गृहस्थी को संभालने में व्यस्त हो जाती.

मगर वह दिन बाकी दिनों जैसा नहीं था आज मीनाक्षी का जन्मदिन था और सुचेता सुबह से ही मीनाक्षी को मिलकर उसके जन्मदिन की शुभकामनाएँ देने के लिए व्याकुल थी .पर जब सुचेता ने मीनाक्षी को विश करने के लिए फोन किया तो उसे लगा कि मीनाक्षी पहले की तरह उसे मिलने को व्याकुल नहीं थी .सुचेता बीते कुछ दिनों से ही महसूस कर रही थी कि मीनाक्षी कुछ बदल सी गई है वह इस बात को समझ नहीं पा रही थी कि आखिर इस बदलाव की वजह क्या है .वैसे तो सुचेता जानती थी कि घर की परेशानियों की वजह से वह उलझी रहती है और उसके पति से भी उसकी आये दिन किसी न किसी बात को लेकर नोंक- झोंक चलती रहती है .उसे मालूम था कि उसके मन में अपने पति के लिए बिलकुल आत्मीयता शेष बची नहीं है . वह तो एक समझौता किए बैठी है .

उसकी नजरों में मीनाक्षी एक बहुत ही आदर्श संस्कारी और पढ़े लिखे होने के साथ ही आधुनिक विचारों वाली समझदार महिला थी . शहर में उसकी अच्छी खासी पहचान और रुतबा था .सब लोगों की नजरों में बहुत ही दृढ़ विचारों वाली और अनुशासन प्रिय थी . राजनैतिक और सामाजिक संगठन में उसका वर्चस्व साफ़ नजर आता था . वह हर कार्य क्रम में जहां तक हो सकता था अपने पति के साथ ही जाती थी शायद यह सामाजिक क्षेत्र में एक मजबूरी के तहत था अन्यथा लोग औरत पर कीचड़ उछालने में देर नहीं लगाते ..सुचेता ने उसके सूनेपन को कई बार महसूस किया था वह बाहर से खुद को जितना ही सशक्त और मजबूत दर्शाती थी अन्दर से वह उतनी हो खोखली नजर आती थी.


मीनाक्षी को मिलने को आतुर सुचेता जल्दी से तैयार हुई , उसने गिफ्ट पैक किया और उसके घर पहुँच गई . सुचेता ने उसके घर की काल बेल बजाई , मीनाक्षी ने जैसे ही दरवाजा खोला तो वह उसे शुभकामनाएँ देने के लिए उसके गले से लग गई जैसे कि पता नहीं कितने बरसो बाद मिल रही हो . सुचेता ने उसे उपहार दिया तो मीनाक्षी ने कहा , " अरे ! इसकी क्या जरूरत थी तुम्हारी शुभकामनाएँ ही बहुत है मेरे लिए "

दोनों सहेलियां हमेशा की तरह शयनकक्ष में आकर आराम से बैठ गई . आज कुछ अलग ही लग रही थी मीनाक्षी . हल्के नीले रंग के सलवार सूट में उसका गोरा बदन कुछ ज्यादा ही खिल रहा था . सुचेता से कहे बिना रहा नहीं गया ,
" अरे क्या बात ? आज तो मैडम कुछ ज्यादा ही निखरी नजर आ रही है , लगता है आज सुबह ही तुम्हे तुम्हारे जन्मदिन का उपहार भैया से मिल गया है "
मीनाक्षी ने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और ना ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की . फिर दोनों इधर- उधर की बातों में व्यस्त हो गई . कुछ देर बाद मीनाक्षी ने सुचेता से पूछा , ' अच्छा ये बता तूँ क्या लेगी ? बातें तो बाद में भी होती रहेगी . चाय बनाऊं या काफ़ी लेना पसंद करोगी . "
" चल ऐसे कर चाय ही बना ले . मै भी आती हूँ तेरी मदद करने '" यह कहकर वह भी रसोईघर में उसके पीछे- पीछे आ गई
मीनाक्षी ने चाय का पानी रख दिया और एक प्लेट में गाजर का हलवा डालने लगी और सुचेता को देते हुए बोली ," ये ले मुँह मीठा कर , देख तो कैसा बना है मैंने अपने हाथों से बनाया है"

एक उचित मौका पाकर सुचेता मीनाक्षी से पूछने लगी ," एक बात कहूँ अगर बुरा न मानोगी . पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगता है कि कोई न कोई ख़ास बात है जो तुम मुझसे छिपा रही हो . हो न हो वह तुम्हारे दिल पर बोझ बनकर तुम्हे दुखी कर रही है . क्या वह बात तुम मुझे नहीं बताओगी? "
मीनाक्षी ने अपने चेहरे की भाव भंगिमा बदलते हुए अपने अंतर्मन के दुःख को टालने की चेष्टा की .

सुचेता ने मीनाक्षी के चेहरे को अच्छी तरह से पढ़ लिया था . हो न हो मीनाक्षी उससे कोई न कोई बात अवश्य छिपा रही है और भीतर ही भीतर वह किसी अंतर्द्वंद्व से जूझ रही है .वह कुछ कहना तो जरूर चाहती है मगर वह शब्द उसके होंठों पर आकर रुक जाते है .

.सुचेता माहौल को कुछ हल्का करने के लिए मजाक करते हुए पूछने लगी ," आज कमल भैया ने तोहफे में तुम्हे क्या दिया है "
इस बात का मीनाक्षी क्या उत्तर देती फिर अनमने भाव से कहने लगी ,
" सुचेता तुम अच्छी तरह से तो इनके स्वभाव को जानती हो , तोहफा तो क्या उन्होंने तो अच्छे से मुझे विश भी नहीं किया . खैर तूँ छोड़ इन बातों को , अब तो मैंने किसी तरह की उम्मीद करना भी छोड़ दिया है . मै तो कई वर्षो से अपना जन्मदिन भी नहीं मनाती हूँ इसीलिए " .

" अरे वाह! आज तो चमत्कार हो गया ,इतना स्वादिष्ट हलवा है जैसे कि तुमने अपनी सारी मिठास इसी में घोल दी हो . आज क्या सूझी हमारी प्यारी सहेली को हलवा बनाने की . कोई ख़ास मेहमान आ रहा है क्या ?"

चाय तैयार होते ही मीनाक्षी ने एक ट्रे में कप रखे और साथ में कुछ नमकीन भी डाल ली और फिर से दोनों शयन कक्ष में आकर बैठ गई .
सुचेता ने बातों के सिलसिले को जारी रखते हुए ,
" चल ऐसा करते हैं , हम कल ही दोनों बाजार चलते है, तुम भी अपने मन पसंद की कोई चीज ले लेना और मुझे भी कुछ काम है . इस बहाने थोड़ा घूमना- फिरना भी हो जाएगा .वैसे भी इन आदमी लोगो के साथ खरीददारी करने में कहाँ मजा आता है ऐसे लगता है कि जैसे कोई सजा काटने आए हो "

तुम अपना मन उदास मत करो . तुम्हे कौन- सा कोई कमी है किसी चीज की" .
सुचेता की धीरज बंधाने वाली बातें सुनकर जैसे कि मीनाक्षी के सब्र का बाँध टूट गया हो . वह काफी भावुक होते हुए कहने लगी , " तुम ठीक कहती हो सुचेता , पर प्यार से दिया हुआ एक फूल भी बहुत होता है . जिस इंसान के लिए हम अपना सब कुछ कुर्बान कर देते हैं उससे उम्मीद तो बनी ही रहती है . उसके द्वारा कहे दो मीठे बोल भी अमृत से कम नहीं होते ".

मीनाक्षी की शादी कमल से हुए तकरीबन १२ साल का समय बीत गया था और उसके १० वर्ष का बेटा भी था .

वह आगे कहने लगी ,
" तुझे तो पता है कि मेरा कार्य क्षेत्र कैसा है आए दिन किस तरह के लोगो से मेरा पाला पड़ता है , और ऐसे लोगो से मै कभी भी अपने मन की बात करने की सोच भी नहीं सकती . ये लोग तो दूसरों की मजबूरी का फायदा लेना जानते है बस . घर की और बाहर की जिम्मेवारियां निभाते- निभाते मै भीतर ही भीतर बुरी तरह उकता गई हूँ . एक खालीपन हर समय कचोटता रहता है .आज तक जो भी इंसान संपर्क में आये सब अपना स्वार्थ पूरा करते हुए नजर आये . उनकी गन्दी नजरें हर समय मेरे जिस्म को घूरती हुई नजर आती है .किसी के बारे में कोई नहीं सोचता . हर कोई अपना उल्लू सीधा करना चाहता है . हर कोई बाहर की खूबसूरती को देखता है मन में क्या है कोई नहीं जानना चाहता? .दुनिया के अजीबोगरीब रंग- ढंग देख कर मेरे सामान्य व्यवहार में भी काफी बदलाव आता जा रहा था पर ये सारी बातें मै किसे बताती . बस अन्दर ही अन्दर सब बातें दबाती गई " .

सुचेता बड़े ही ध्यान से सारी बातें सुन रही थी .उसे एक ही बात रह- रह कर परेशान कर रही थी कि आखिर मीनाक्षी में इतना बदलाव किस कारण से है. आज कल वह कुछ खोई - खोई सी रहती है .न ज्यादा किसी से बात करती है न ही पहले की तरह अपने सास- ससुर की शिकायतें करती हैं.
सुचेता से रहा नहीं गया तो पूछ ही बैठी ,
" आज कल मैडम कहाँ खोई रहती है , किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती न ही कहीं आती- जाती हो . मै ही हर बार तुम्हारे घर आती हूँ . तुम भी कभी अपने कदम मेरे घर पर डाला करो . मुझे कई पहचान वाले लोग तुम्हारे बारे में पूछ चुके हैं कि क्या बात आज कल तुम्हारी सहेली नजर ही नहीं आती ? "
मीनाक्षी क्या उत्तर देती ,
" कुछ नहीं सुचेता बस आज कल कुछ लिखने का काम शुरू किया हुआ है और जरा कुछ किताबें पढने में व्यस्त थी "

सुचेता मन ही मन जानती थी कि मीनाक्षी में काफी हुनर है और उसे बाकी औरतों की तरह इधर- उधर खड़े हो कर गप्पे मारना ,चुगलियाँ करना पसंद नहीं है .वह हमेशा ही किसी न किसी सृजन कार्य में व्यस्त रहती थी .पिछले कुछ समय से वह सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी पहले की तरह सक्रिय नहीं थी . आज कल उसका ज्यादा समय घर के और बच्चों के काम काज के इलावा तरह- तरह की किताबें पढने और कंप्यूटर पर ही बीतता था .उसे वैसे भी बेवजह बात करना पसंद नहीं था .वह बातों में कम और कर्म करने में ज्यादा विश्वास करती थी और कुछ न कुछ करने में खुद को व्यस्त रखती थी.
मीनाक्षी से कोई प्रत्युत्तर न पाकर सुचेता ने फिर से पूछा ,
" तुमने ये लिखने- पढने का नया शौंक कहाँ से पाल लिया है , उसके अलावा तुम पहले से भी कम बोलती हो .ऐसा लगता है हर समय किसी तरह के विचारों में खोई रहती हो .एक बात और कहूँ कि तुम्हारे में एक अजीब सा बदलाव आ गया है . पहले से भी ज्यादा खूबसूरत दिखने लगी हो . चेहरा तो देखो मानो सुर्ख हो गया है . अजीब सी रौनक और चमक चेहरे पर आ गई है . मुझे भी इसका राज बताओ , कि आखिर बात क्या है ?" .
मीनाक्षी सोच रही थी कि सुचेता तो आज उसके पीछे हाथ धो कर पड़ गई है. अब वह उससे झूठ किस तरह बोले .शायद किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो . मन ही मन वह खुद भी बेचैन थी किसी से अपने मन की बातें करने के लिए, पर कशमकश में थी कि किस तरह अपने दिल का हाल सुनाये .क्या जो उस पर बीत रही है वह सही है या गलत? . सही- गलत के इसी उधेड़- बुन में तो वह कई दिनों से झूल रही थी.

कहीं यह उसका पागलपन तो नहीं ,मगर दुनिया जो भी सोचे जो भी समझे उसे ये नया अहसास बहुत ही सुखदायक लग रहा था .उस अहसास के आगे रूपया पैसा रुतबा दुनियादारी सब फीके लग रहे थे .
उसे लग रहा था मानो जिस सुख की तलाश में वह इतने वर्षों से भटक रही थी वह भगवान् शिव की कृपा से उसकी झोली में आ गिरा हो .काफी कोशिश करके भी वह अपने मन की बात को जुबान तक नहीं ला पा रही थी . सुचेता से उसकी चुप्पी बर्दाश्त नहीं हो रही थी . वह ये तो देख रही थी कि मीनाक्षी कुछ कहना तो चाहती है मगर कह नहीं पा रही है . उसकी झिझक देख कर सुचेता से रहा नहीं गया ,
" देखो मीनाक्षी, अगर तुम नहीं बताना चाहती तो तुम्हारी मर्जी . लगता है तुम मुझ पर अभी भी पूरी तरह भरोसा नहीं करती हो . मै भी तो अपने दिल की हर बात सबसे पहले तुम्हे ही तो बताती हूँ . "

सुचेता की ये बात सुनकर मीनाक्षी को आखिरकार अपनी जुबान खोलनी ही पड़ी ,
" सुचेता , कहाँ से शुरू करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा. एक इंसान है जो किसी देवदूत से कम नहीं है . मै उस इंसान से कभी मिली नहीं हूँ . बस इंटरनेट के द्वारा बातचीत शुरू हुई थी और अब फोन पर भी अक्सर बात होती रहती है . मुझे नहीं पता क्या सही है क्या गलत है ? बस इतना जानती हूँ वह जो कोई भी है दिल का सबसे अच्छा इंसान है . मैंने इतनी दुनिया देखी है पर इस तरह का देवता स्वरुप इंसान नहीं देखा . वह मेरे दर्द को .मेरी भावनाओं को समझता है .मेरे मन के खालीपन को जानता है .वह हर समय मुझे अपने परिवार में खुश देखना चाहता है . मुझे मुस्कुराता देखने के लिए उसकी तड़प को मैंने महसूस किया है . पर हमारा समाज अभी भी शादी के बाद औरत के मन में किसी परपुरुष के ख्याल को आने को भी पाप समझता है."
यह कहते हुए मीनाक्षी ने एक गहरी सांस भरी और चुप सी हो गई . सुचेता ने उसकी बात पर हामी भरते हुए कहा , " हाँ, मीनाक्षी तुम्हारी बात सही है पर मै ये मानती हूँ यदि किसी औरत को अपने पति से वो प्यार ,वो इज्जत नहीं मिलती तो उसे क्या करना चाहिए? . क्या उसे हर समय रो- धोकर अपना जीवन बिताना चाहिए? . तब कौन सा समाज आगे आकर किसी का दर्द बांटता है . क्या सच्चा प्रेम करना कोई पाप है? क्या मीरा ने भगवान् कृष्ण से सच्चा प्रेम नहीं किया था ? मेरे हिसाब से प्रेम करने का कोई निर्धारित समय नहीं हो सकता . "

" सुचेता , उसका मन भगवान् की किसी मूर्ति की तरह ही पवित्र है . हम दोनों की आत्माएं एक है . वह मेरे साथ न होकर भी हर समय मेरे पास होता है . वह तो निष्काम प्रेम की प्रतिमूर्ति है .............."

यह कहते ही उसकी आँखों में से भावुकता वश आंसू बहने लगे और छलकते आँसुओं से भी उसने कहना जारी रखा ,

" सच बात बताऊँ सुचेता , मैंने इतनी बातें तो आज तक कभी खुद के साथ भी नहीं की. मेरे जीवन की कोई भी बात उससे छुपी नहीं है . उसने मुझ पर पता नहीं क्या जादू कर दिया है उसकी बातों से मै सम्मोहित हो जाती हूँ .बेशक मै यदि उससे जीवन में कभी मिल भी पाऊं या नहीं पर उसका गम नहीं है .उसके मेरे जीवन में आने से मेरा अधूरापन और सूनापन भर गया है .मेरी जरा सी भी तकलीफ उससे बर्दाश्त नहीं होती . उसकी बातों में अजीब सा अपनापन, अजीब सी कशिश है जितनी किसी के साथ रहने में भी न हो . कभी- कभी तो मुझे महसूस होता है कि वह मेरे आस- पास ही है .वह कुछ ना होकर भी मेरा सब कुछ है .जीवन के इस मौड़ पर वह कभी एक गुरु की तरह मुझे आध्यात्मिक ज्ञान देता है, तो कभी एक माता- पिता की तरह घर गृहस्थी के फर्ज निभाने की सीख देता है , तो कभी एक दोस्त की तरह मेरे दर्द को बांटता है , तो कभी भाई- बहनों की तरह मेरे साथ हँसता- मुस्कुराता है ,और कभी एक प्रेमी की तरह मुझ पर अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हो जाता है " .

" अब तूँ ही बता क्या आज कल की दुनिया में ऐसा कोई इंसान मिल सकता है? . मुझे तो लगता है वह किसी दूसरी दुनिया से आया हुआ कोई मसीहा है जिसे भगवान् ने मेरे लिए भेजा है . कभी - कभी लगता है कि मै कोई सपना तो नहीं देख रही , कहीं यह मेरी मात्र कल्पना तो नहीं ? ऐसा लगता है कोई पिछले जन्म का संबंध है जो मुझे उसकी तरफ खींच रहा है . एक इच्छा जरूर है कि भगवान् जीवन में यदि मिलने का एक मौका दे तो खुद को उनके चरणों में समर्पित कर दूँ ."

तभी मीनाक्षी को दरवाजे पर घंटी की आवाज सुनाई दी और उसने जब हड़बड़ी में उठकर दरवाजा खोला तो देखा उसकी सहेली सुचेता हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ी है . उसने उसे जन्मदिन की मुबारक दी तो मीनाक्षी कहने लगी , " अरे मै तो कब से तुम्हारा इन्तजार कर रही थी और टी. वी. देखते- देखते मेरी कब आँख लग गई पता ही नहीं चला . चल अन्दर चल तेरे साथ बहुत सी बातें करनी है "

Monday, 7 June 2010

असली पूँजी



असली पूँजी

जिज्ञासा ने जैसे ही अपनी बेटी यक्षिता के साथ अपने पुराने कालेज के गेट मे प्रवेश किया,उसे लगने लगा मानो यह कल ही की बात हो जब उसने हायर स्कैनडरी की परीक्षा पास करके उस कालेज मे दाखिला लिया था, भले ही इस बात को बीते हुए बीस साल से ज्यादा का समय पार हो चुका था. अपने उस कालेज मे उसे काफी बदलाव नजर आ रहा था . पार्किंग का एरिया जहां पहले इक्का- दुक्का गाड़ियां और कुछएक स्कूटर ही नजर आते थे वहाँ अब सारी जगह गाड़ियों और अन्य वाहनों से भरी पड़ी थी . एक दो नई बिल्डिंग्स भी नजर आ रही थी हाँ जो नहीं बदला था वो थे वहाँ के फूल पत्ते , अभी भी वहाँ कई पुराने गार्ड़न उसी तरह दिखाई दे रहे थे .एक गार्ड़न को देखकर जिज्ञासा को अपने अतीत की याद आने लगी, वह यक्षिता से कहने लगी बेटी, यह वही मेरा बोटैनिकल गार्ड़न है जहां हम तरह- तरह की वनस्पतियों का अध्ययन करते थे, अभी भी देखो न, कितना अच्छा दिख रहा है. आस पास देखते - देखते वह प्रिंसिपल के चैम्बर तक पहुँच गई .
प्रिंसिपल के कक्ष में उसे काफी बदलाव नजर आ रहा था , सब कुछ आधुनिक तरीके से बना हुआ लग रहा था . मन ही मन जिज्ञासा सोच रही थी कि बीस वर्ष का समय कोई कम तो नहीं होता , लगभग दो दशक बीत चुके थे . पर अपनी घर गृहस्थी में वह इतनी व्यस्त हो गई थी कि उसे इतने लम्बे समय के बीतने का पता ही नहीं चला , परन्तु आज सब पुरानी यादें ताज़ा हो रही थी और वह खुद की तुलना पहले वाली शौख , चंचल और तीव्र बुद्धि वाली जिज्ञासा से कर रही थी जिसके आस- पास हर समय उसकी आकर्षक छबि और होशियार होने की वजह से सहेलियों का जमघट लगा रहता था. सब कुछ होते हुए भी उसके मन के किसी एक कोने में एक कमी सी खलती रहती थी कि क्या घर परिवार और बच्चों की परवरिश करने के लिए ही उसने इतनी पढाई लिखाई की थी. बेशक इतने सालों में गंभीरता से उसे यह सब सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली और दिवाकर के बेपनाह प्यार ने उसे कोई कमी आने भी नहीं दी थी . दिवाकर तो हर समय उसके रूप और गुणों की तारीफ़ एक दीवाने की तरह करते नहीं थकते थे.
दिवाकर एक राष्ट्रीय कंपनी में बतौर इंजीनियर के काम करते थे बावजूद उसने कभी किसी तरह की कोई कमी जिज्ञासा को महसूस होने नहीं दी थी .कभी- कभी तो वह जिज्ञासा की तारीफ़ में कविता कहने लगता था . आज सुबह की ही बात थी जब जिज्ञासा कालेज आने के लिए तैयार हो रही थी और उसने गहरे आसमानी रंग की साड़ी पहनी तो दिवाकर उसे तैयार होते देख पास आकर बैठ गया और उसे बड़े प्यार से निहारने लगा तो जिज्ञासा नई नवेली दुल्हन की तरह शरमा गई और बोली ,
" आप तो मुझे इस तरह देख रहे है जैसे कि कल ही हमारी शादी हुई हो . पूरे १८ साल बीत गए हैं हमारी शादी को "
ऊपर से दिवाकर ने बड़े ही रोमांटिक अंदाज में कहा था ,
" अरे , मुझे तो मेरी जान आज भी नई नवेली दुल्हन की तरह लगती है और जी चाहता है कि तुम्हे इसी तरह हर दम देखता रहूँ " .
यह कहकर दिवाकर ने उसे अपनी बाहों में भर लिया था . ऐसा सोचते ही जिज्ञासा को अजीब सी सिरहन होने लगी .
इस तरह जिज्ञासा भी दिवाकर के प्यार में इस कदर बहती चली गई कि उसे कभी अतीत की तरफ मुड कर देखने की फुर्सत ही नहीं मिली.
खुद को दिवाकर बहुत खुशकिस्मत मानते थे कि जिज्ञासा जैसी सर्वगुण संपन्न धर्मपत्नी उसे मिली .जिसकी उसके ना सिर्फ सगे- सम्बन्धी बल्कि उसके दोस्त मित्र भी तारीफ़ करते नहीं थकते थे और उससे ईर्ष्या भी करते थे . एक बार जब दिवाकर काफी बीमार हो गए थे तो उनके दोस्त रोहित ने तो यहाँ तक कहा था ,
"भाभी जी आप बिलकुल चिंता मत करे दिवाकर बहुत जल्द ठीक हो जाएगा . अरे, जब आपकी आँखों में इतना विश्वास और इतनी चमक दिखाई देती है और जिस तरह आप इसकी तन- मन से इतनी सेवा कर रही है तो इसे जल्दी ही आपकी खातिर ठीक होना ही पड़ेगा "
उसका ध्यान अतीत की यादों से तब भंग हुआ जब उसकी बेटी ने कहा,
" मम्मी पियन कह रहा है कि अभी तो प्रिंसिपल साहिबा व्यस्त है, अन्दर सभी लेक्चरर्स के साथ मीटिंग चल रही है, मीटिंग ख़त्म होते ही वह हमे खबर कर देगा तब तक हम उस गार्डन मे बैठकर आराम से इन्तजार करते हैं ।
," अच्छा, ठीक है, " जिज्ञासा ने उत्तर दिया, फिर वह पियन से पूछने लगी," अच्छा जरा ये तो बताओ कि अभी प्रिंसिपल कौन है" ,
“ अरे क्या आप नही जानती है, इसी शहर की जानी मानी हस्ती अनीता खुराना ही तो कालेज की प्रिंसिपल हैं और सुना है वह किसी जमाने में इसी कालेज में ही पड़ा करती थी . मैडम क्या आपने पढ़ा नहीं ,इधर देखिये , इस नेम प्लेट पर उनका नाम भी तो लिखा हुआ है"
अनीता खुराना का नाम उसे कुछ जाना पहचाना सा लगा और वह अपने दिमाग पर जोर डालने लगी तो अपने अतीत की यादों मे खो गई. कहीं यह वही अनिता खुराना तो नही। है, जो कभी उसकी सबसे नजदीकी सहेली हुआ करती थी .उस समय उसके साथ- साथ अनीता का नाम भी वरीयता सूचि में आया था . वह भी काफी होशियार व होनहार लडकी थी और हर समय कुछ ना कुछ नया सीखने की ललक ने उसे जिज्ञासा के काफी नजदीक कर दिया था. धीरे- धीरे कर उनकी यह नजदीकी घनिष्ठता में बदलती गई. उसकी बाकी सहेलियाँ भी जिज्ञासा को ¨ हमेशा घेरे रहती थी और वह भी हर समय उन सभी की समस्याओं ¨ का समाधान करने को तत्पर रहती थी भले ही कोई भी विषय कितना भी कठिन होता था फिर भी जिज्ञासा उनका उत्तर खोजने मे उत्सुकता दिखाती थी .कभी-कभी तो वह अपने अध्यापक¨ से भी इस बारे मे मदद लेती थी.

अनीता का तो ¨ कहना ही क्या था वह तो घर पर जिज्ञासा के ना सिर्फ सारे क्लास नोट्स की कापी करवाकर अपने साथ ले जाती थी
बल्कि उसकी परीक्षाओं की हर उत्तर तालिकाएँ भी अपने साथ घर ले जाकर ध्यान से देखती थी .यह सब देखकर जिज्ञासा मन ही मन फूली नही समाती थी उसे अपने आप पर गर्व महसूस होने लगता था अपने नोट्स की इतनी इज्जत देखकर उसक मन प्रफ्फुलित हो जाता था .
जिज्ञासा जितनी तेज दिमाग थी उतनी चंचल स्वभाव की भी थी उसे कोई न कोई शरारत करने में बहुत मजा आता था या यूँ कहा जाए कि एक दम जिंदा दिल इंसान थी . इसलिए अपनी सहेलियों में ही नहीं वरन वह अध्यापकों की भी प्रिय शिष्या रहती थी . उसकी किसी भी शरारत को अध्यापक इस तरह नजर अंदाज कर देते थे जिस तरह माँ अपने बच्चे की शरारतों को अनदेखा करती है . सभी अध्यापक उसके व्यक्तित्व से प्रभावित रहते थे.
कालेज की स्नातक डिग्री तक अनीता और जिज्ञासा की दोस्ती चोली- दामन के साथ के रुप मे विख्यात थी, . मगर स्नातक डिग्री मे दोनों के विषय अलग- अलग थे, इसी वजह से पहले की तुलना मे वे ¨एक साथ बहुत कम रह पाती थी. यहाँ तक दूसरे दोस्त भी कह उठते थे ऐसी क्या बात है आजकल जिज्ञासा और अनीता एक साथ नजर नही आती है. कही दोनों मे कोई मतभेद तो ¨ नही हो गया है .उन्हे नजदीक से जानने वाले दलीले देते थे, ऐसी कोई बात नही है, दोनों ¨ किताबी कीडे है परन्तु अब दोनों के विषय बदल गये है।, तब कहाँ से एक साथ नजर आएँगे?इस तरह की टिपण्णियाँ उनके कानो ¨ मे अक्सर आती रहती थी, मगर उनके दिल मे हमेशा एक दूसरे के लिए दोस्ती का भाव बना रहता था .
पर स्नातक की पढाई खत्म होते- होते जिज्ञासा की दिवाकर के साथ शादी हो गई , उसे अभी भी वह बात अच्छी तरह याद है, जब उसकी शादी मे अनीता खूब नाची थी, उसका नाच देखते ही बनता था. सब परिजन¨लोगो ने उसके नाच की खूब तारीफ की थी. शादी के बाद जिज्ञासा अपने घर-संसार मे इस कदर व्यस्त रहने लगी कि धीरे- धीरे कर वह अपनी सारी पुरानी सहेलियों को भूलती गई . उसने अपने लिए एक अलग दूसरी दुनिया की रचना कर ली थी . दिवाकर को पति के रूप में पाकर वह सब कुछ भूल गई थी और खुद को धन्य मानती थी . दिवाकर भी एक आदर्श पति की तरह जिज्ञासा की हर छोटी- बड़ी ख़ुशी का ध्यान रखता था .

अनिता खुराना का नाम सुनकर तथा उसका नाम नेम प्लेट पर देखकर उसे अचरज के साथ-साथ एक हीन भावना का अहसास होने लगा था. जहाँ अपनी सहेली को इतने बड़े कालेज की प्रिंसिपल की कुर्सी पर पाकर उसका मन ख़ुशी से फूला नही समा रहा था वहाँ अपने आपको एक गृह-पत्नी के सीमित से दायरे में पाकर उसका मन दुखी होने लगा था. अगर यह वही अनीता खुराना निकली तो उसे देखकर क्या सोचेगी , क्या कहेगी
जिज्ञासा, तुम? तुम अपने किसी मुकाम को हासिल नही कर सकी? शादी करवाकर तुम सिर्फ एक साधारण गृहणी बनकर ही रह गई .
क्या उत्तर देगी वह इस बात का ?
तुम्हारे नोट्स पढकर मै आज इस प्रतिष्ठित पद तक पहुँच गई हूँ मगर तुम? तुम्हे तो मुझसे कई गुणा आगे होना चाहिए था .तरह- तरह के विचार उसके मन में आ- जा रहे थे .वह अपने आप को एक झंझावत मे फंसा हुआ पा रही थी. वह समझ नही पा रही थी कि किस तरीके से वह उसके सामने जाएगी. खुदा न खास्ताँ कही ऐसा न हो कि अनीता उसे पहचानने से ही मना कर दे .या फिर उससे अच्छी तरह बात ही नही करे। उसके मन मे तरह- तरह के विचारों की आँधी चल रही थी तभी चपरासी गार्डन मे आकर उनको आवाज देने लगा,
“मैडम ¨ मैंने आपके बारे मे प्रिंसिपल साहिबा को बता दिया है, वह आपको अपने कक्ष में बुला रही है ”
जिज्ञासा अपने आप को फिर से मानसिक तौर पर तैयार कर अपनी बेटी से कहने लगी,
"यक्षिता,चल¨, प्रिंसिपल मैम हमे बुला रही है "

जिज्ञासा ने कई तरह के विचारों में डूबे- डूबे किसी तरह अपनी बेटी के साथ प्रिंसिपल के चैम्बर मे झिझकते हुए कदमो से प्रवेश किया. सामने अपनी बचपन की सहेली को पाकर वह एक तरफ बहुत खुश थी तो दूसरी और अजीब सी घुटन महसूस कर रही थी . इधर अनीता ने भी जिज्ञासा को पहचान लिया और उसे देखते ही वह अपनी सीट से खड़ी हो गई और आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया, जिज्ञासा को सामने पाकर अनीता बहुत खुश नजर आ रही थी, मगर जिज्ञासा की झिझक अभी भी मन से दूर नही हुई थी, उसके मुँह से एक भी शब्द नही निकल रहा था, यह देखकर अनीता कहने लगी,
" जिज्ञासा तुम्हे यहाँ देखकर मै कितनी खुश हुँ, तुम इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा पाओगी , कैसी हो ¨ तुम? दिवाकर कैसे है? मम्मी - पापा? अरे तुम तो पहले से भी ज्यादा खूबसूरत और खिली हुई नजर आ रही हो "
एक ही साँस मे बहुत कुछ बोल गई थी वह , अब जाकर जिज्ञासा की झिझक खत्म हुई , मम्मी को अपनी पुरानी सहेली के साथ मिलता देख यक्षिता कहने लगी, मम्मी, आप लोग बातें कीजिये , मै जरा बाहर कालेज घूमकर आती हूँ . अनीता ने यक्षिता को अपने पास बुलाया और प्यार से पुचकारने लगी, यक्षिता को देखते ही उसके भीतर का सिमटा हुआ ममत्व जाग उठा था, और प्यार से उसकी और देखते हुए कहने लगी,"
" जिज्ञासा, इतनी ही स्मार्ट, इतनी ही सुन्दर , किसी भी मामले मे तुमसे कम नही है"
. बेटी की तारीफ सुनकर जिज्ञासा मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई
और फिर उसने अनीता की निजी जिन्दगी के बारे मे पूछना शुरू किया,
“अनीता तुम तो मुझे शादी के बंधन मे बांधकर ऐसे गायब हो गई ¨जैसे अलादीन के चिराग का जिन्न, अच्छा, बताओ तुमने शादी कब की और ना ही तुमने मुझे अपनी शादी मे बुलाया ।, क्या करते है तुम्हारे पतिदेव?"
प्रश्नों की बौछार करते हुए उसने आगे कहना जारी रखा,
“अरे मै तो¨ मन ही मन बहुत डर रही थी कि तुम मुझे पहचानोगी भी या नही?आज तुम इतने बड़े पद पर आसीन हो .” ये सारी बाते सुनकर अनिता भाव-विव्हल हो गई , उसकी आँखे आँसुओं से नम हो गई , वह कहने लगी कैसी बात करती हो जिज्ञासा?मैंने आज जिस मुकाम को हासिल किया है वह सिर्फ तुम्हारी वजह से ही है . अगर तुम मेरी पढाई मे मदद नही करती तो क्या मै आज इस पद पर आसीन होती ? मै जीवन भर इस बात को भूल नही पाउंगी . मेरा हृदय सदैव तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहेगा . यह कह कर उसने एक दीर्घ
सांस छोड़ी और कुछ क्षण के लिए चुप हो गई , उसे चुप देखकर जिज्ञासा से रहा नही गया, वह कहने लगी,
" अनीता , यह तो तुम्हारा बड़प्पन है अन्यथा आजकल के जमाने मे कौन किसकी सुध लेता है? और अगर कोई जरा सी भी कामयाबी हासिल कर लेता है तो बात करना तो दूर की बात पहचानने से भी इन्कार कर देता है।,खैर छोड़ो इस बात को ¨ तुमने अपने परिवार के बारे मे कुछ भी नही बताया"
पहले तो अनीता कुछ देर तक चुप रही, फिर जिज्ञासा की तरफ देखकर कहने लगी," तुम तो ¨ सिद्वार्थ को ¨ जानती होगी ? तुम्हारे साथ कालेज मे पढता था, एम. ऐ. फाइनल मे' । जिज्ञासा ने हामी भरते हुए कहा " हाँ- हाँ याद आया, वह मेरा क्लासमेट था ,अच्छी तरह से जानती हूँ सिद्वार्थ¨को , वह तुम्हारा खास दोस्त हुआ करता था. तुम लोग तो काफी पहले से एक दूसरे को जानते थे "
" हाँ जिज्ञासा, जैसे ही सिद्वार्थ की एक मल्टी नेशनल कंपनी मे नौकरी लग गई वैसे ही उसने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा, उसी समय मेरी भी कालेज मे लेक्चरर के रुप मे नौकरी लग गई थी. और फिर हमने धार्मिक रीति -रिवाजों और माता पिता की मर्जी लेते हुए शादी कर ली, कुछ साल तक हमारा घर- संसार ठीक चलता रहा और इसी बीच मैंने एक बच्ची को जन्म दिया . पर कुछ समय बाद सिद्वार्थ का दूसरी जगह ट्रांसफर हो गया,¨हम दोनों की नौकरी अलग- अलग जगह पर होने की वजह से हम अलग- अलग रहने के लिए मजबूर थे, फिर क्या कहूँ?"
कहते- कहते अनीता उदास और काफी भावुक हो गई और अपने आपको थोड़ा सभालते हुए, फिर से कहने लगी,
"बस धीरे- धीरे हम दोनों में अक्सर वैचारिक मतभेद रहने लगा . बात इस कदर बढ गई तुम्हे क्या बताऊँ, जिज्ञासा ? "
इतना कहते ही अनीता की आँखों से आँसू बहने लगे .
जिज्ञासा अनीता को सांत्वना देने के लिए उठ खड़ी हुई. और कहने लगी ,
" अनीता मै तुम्हारी पुरानी सहेली हूँ. भले ही हम इतने सालो से एक दूसरे मिल नहीं पाए पर मै अक्सर तुम्हारे बारे में सोचा करती थी .आज जो भी मन की बातें हो कहकर अपना दिल हल्का कर लो "

अनीता ने खुद को संभालते हुए फिर से कहना शुरू किया ,
" शुरू शुरू में तो सिद्धार्थ हर छुट्टी में हमारे पास यानी कि मेरे और मेरी बेटी चंदा के पास भागे चले आते थे और जब मुझे छुट्टी होती तो मै सिद्धार्थ के यहाँ चली जाती थी चंदा को लेकर . पर फिर सिद्धार्थ का आना धीरे- धीरे कम होने लगा. वह हर बार यही बहाना बनाता कि आफिस कि जिम्मेवारी बहुत बढ गई है इसलिए छुट्टी नहीं मिल पाती है . एक बार यहाँ अचानक स्कूल और कालेज में छुट्टी हो गई तो चंदा पापा के पास जाने की जिद्द करने लगी और कहने लगी कि मम्मी हम पापा को सरपराइज देंगे . "
इतना कहकर अनीता खामोश हो गई कुछ देर के लिए . जिज्ञासा ने उसे पानी पीने को कहा और इतनी देर में पियन भी चाय लेकर आ गया . अनीता ने जिज्ञासा को चाय पीने को कहा . फिर चाय पीते- पीते अनीता अपनी बात पूरी करते हुए एक लम्बा सांस लेते हुए बोली फिर क्या बताऊँ तुम्हे जिज्ञासा ,
" हम दोनों को सिद्धार्थ के पास पहुँचते- पहुँचते तकरीबन रात हो गई थी . बस से उतर कर हम लोग रिक्शा करके सीधा घर पहुँच गए . घर की लाइट्स जल रही थी और वैसे भी हम दोनों ने अपने- अपने घर की एक- एक चाबी एक दूसरे को दे रखी थी तांकि वक्त- बेवक्त कोई परेशानी न आये . बस जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो सिद्धार्थ को अपने आफिस की ही एक लड़की के साथ आपत्ति जनक हालत में देखा . यह तो अच्छा था कि अभी चंदा ने कुछ नहीं देखा था क्योंकि उसे पार्क में उसकी एक हमउम्र सहेली मिल गई थी . बस फिर तो मुझे ऐसा लगा कि सब कुछ खत्म हो गया है. वह रात मेरे जीवन की सबसे काली रात थी . बात को इस कदर बढता देख हम लोग कानूनी तौर पर हमेशा- हमेशा के लिए अलग हो गए . इन सारी बातों का खामियाजा मेरी बेटी को भुगतना पड़ा,"
अनिता की बाते सुनकर जिज्ञासा का मन भी भर आया , और उसने अपने दिल पर पत्थर रखकर अनीता से पूछा,
" बड़ी ही दुख भरी कहानी है तुम्हारी अनीता ,कितनी बड़ी है तुम्हारी लड़की? और आजकल वह किसके साथ रहती है?क्या सिद्धार्थ से तुम्हारी अब कोई बातचीत होती है "
एक गहरी सांस लेते हुए अनीता ने कहा,
" जिज्ञासा, हमारे तलाक की वजह से चंदा को गहरा सदमा लगा, उसके दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ा, वह हमेशा चुपचाप रहने लगी, वह हम दोनों मे से किसी के भी साथ भी रहना नही चाहती थी , आजकल वह दसवीं कक्षा मे पढ़ती है और मँसूरी मे हॉस्टल में रहती है .मेरा जब मन करता है तो मै उससे मिल आती हूँ . रही बात सिद्धार्थ की उसने तो तलाक के बाद कभी चंदा से भी मिलने की कोशिश तक नहीं की .और किसी से मुझे सुनने को मिला था कि उसने अपनी उस सहयोगी कर्मचारी के साथ शादी कर ली थी . अब क्या फ़ायदा उन बातों को याद करने का "
कहते- कहते अनिता फफक फफककर रोने लगी और रूंधे हुए गले से कहने लगी,

" तुम्हारी बेटी यक्षिता को देखकर मुझे मेरी बेटी की याद आ गई . तुम बहुत खुशनसीब हो जो इतना प्यार करने वाला पति और घर संसार मिला है . मुझे देखो भीतर से मै पूरी तरह से खोखली हो चुकी हूँ , जानती हो जिज्ञासा, हमारी असली संपत्ति तो हमारा घर परिवार , हमारे बच्चे ही होते है. वह ही हमारी वास्तविक पूँजी है, मुझ अभागी को देखो ¨, इतने उच्च पद पर आसीन होने बावजूद भी आज खाली हाथ दामन बिछाए खडी हूँ “
यह बात सुनकर जिज्ञासा का मन भर आया .

Thursday, 13 May 2010

वजूद

अगली सुबह वह अपनी बच्ची के उठने से पहले ही नहा धोकर तैयार हो गई और सब छोटे- मोटे काम निबटा लिए ,फिर उसने बड़े चाव से अपनी बेटी को भी तैयार कर लिया और बेसब्री से अपने भाई के आने का इन्तजार करने लगी . हर रोज की तरह आज भी उसकी सास बिना कुछ कहे उसके पास दूध और पंजीरी रख कर चली गई . चेतना का मन नहीं हो रहा था पर फिर भी उसने जैसे- तैसे दूध और पंजीरी खत्म किया . समय बीत ही नहीं रहा था कि वह अपना मन बहलाने के लिए तोतली जुबान में अपनी बेटी से बातें करने लगी , " गुड़िया तुझे पता है आज तेली नानी बड़ी बेसब्री से अपनी नवासी का इन्त्जाल कर रही होगी , मेली रानी बेटी पहली बार अपने नानके जाएगी और आज तेरी नानी ने बहुत शौंक से खीर बनाई होगी क्यूंकि उन्हें पता है मुझे खीर बहुत पसंद है . पता है तेली नानी बचपन से लेकर मेरे हर जन्म दिन पर बादामो वाली खीर जरूर बनाती थी " उसे रह- रहकर वह दिन याद आने लगा जब .चेतना अपनी नवजात बच्ची को लेकर अस्पताल से सीधे अपने मायके जाना चाहती थी। मगर ससुराल में उसका यह पहला प्रसव था, इसलिए चेतना की सास बिल्कुल यह नहीं चाहती थी कि वह बच्ची को लेकर मायके जाए। उसकी सास कहने लगी, “देखो चेतना, अपने यहां का रिवाज हे कि लड़की का पहला प्रसव ससुराल में होना चाहिए। नहीं तो, समाज और बिरादरी में बड़ी बेइज्जती होती है और उस परिवार को नीची दृष्टि से देखते हैं।”
चेतना ने अपनी सास को समझाने का प्रयास किया, “मॉंजी, मुझे नवजात ’ शिशुओं की देखरेख के बारे में कुछ भी पता नहीं है। मैने तो अपने घर में खुद की आखों के सामने किसी भी छोटे बच्चे का लालन-पालन हाते नहीं देखा है। मेरी मॉं को इस बारे में अच्छी जानकारी है। अच्छा रहता, अगर मैं बच्ची को लेकर मायके चली जाती. आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है और वहाँ मेरी मम्मी को घर का तो कोई काम करना नहीं होता क्यूंकि नौकर आकर सारा काम कर जाता है ।”
उसकी सास चेतना को समझाने लगी, “कैसी बातें करती हो चेतना? क्या मैं तुम्हारी मॉं नहीं हूँ । अरे! मेरे खुद के चार लड़के और दो लड़कियॉं हैं। खानदान के कई बच्चो को मैंने अपने हाथो से पाला है । तुम चिंता मत करो, मेरी लाड़ली पोती है। तुम्हें अपनी बच्ची के साथ किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होगी।”
चेतना की वहां बिल्कुल भी रुकने की इच्छा नहीं थी। मगर सास की जिद्द के आगे उसकी कहॉं चलती? ऊपर से उस के पति आकाश ने भी अपनी मॉं का पक्ष लिया। यह सब देखकर वह अपनी दूध मुंही बच्ची को मायके न ले जाकर सीधे ससुराल आ गई। वह चाहती थी कि उसकी बेटी के जन्म के सुअवसर पर घर में शांति बनी रहे, ताकि वह अपनी नवजात बच्ची की अच्छी तरह देखभाल कर सके।
शुरु-शुरु में कुछ दिन बहुत ही अच्छे तरीके से बीते। उसे इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं हुआ कि वह मायके में है अथवा ससुराल में? उसकी सास उसके कमरे में पास में अपना पलंग बिछाकर सोती थी। बड़े प्यार से अपनी पोती को पुचकारती थी तथा उसे ढ़ाढ़स देती थी यह कहकर “ चेतना तुम बिल्कुल चिंता मत करो। रात को मैं गुडिया को अपने साथ लेकर सोऊंगी तांकि तुम चैन की नींद सो सको। रात को बार-बार तुम्हें उठने की जरूरत नहीं पडेगी। ऐसे भी तुम काफी कमजोर हो गई हो। तुम केवल अपने स्वास्थय का घ्यान रखो। जब भी बच्ची दूध के लिए रोएगी मैं तुम्हें जगा दूँगी ।
सास का सहयोगात्मक रवैया देखकर चेतना निश्चिन्त हो गई थी। इधर आकाश भी बीच-बीच में बच्ची की देखभाल कर लेता था। दिन में जब आकाश आफिस चले जाता था। और उस की सास घर के कामकाज में व्यस्त हो जाती थी। तब वह अपनी बेटी को गले लगाकर खूब लाड-प्यार करती थी। अपनी बेटी के साथ खेलने मे उसे खूब आनंद आता था। बीच-बीच में उस की सास उसकी देखभाल कर जाती थी। प्यार से अपनी पोती को पुचकारते हुए कहने लगती थी।
“ चेतना किसी भी चीज की कोई जरूरत हो तो मॉंगने में संकोच मत करना। मैने आज ही आकाश को बाजार भेजा है तुम्हारे लिए पंजीरी बनाने का सामान खरीदने के लिए, अरे इस बहाने हमारी भी पुरानी यादें ताज़ा हो जाएंगी . मेरी बार तो तुम्हारे ससुर खुद अपने हाथों से मुझे पंजीरी बना कर खिलाते थे ".। उसकी सास ने बड़े चाव से उसके लिए मेवा डालकर पंजीरी बनाई तथा सुबह-शाम दूध के साथ उसे खाने के लिए देती थी। वह चाहती थी कि उसकी कमजोरी जल्द दूर हो जाए और वह अपनी बिटिया को अच्छी तरह संभाल सके।
दस-पन्द्रह दिन ख़ुशी -ख़ुशी से बीते। उसे इस दौरान अपनी मॉं और सास में कोई फर्क नजर नहीं आया। वह अपने आपको ऐसी सेवा सुश्रुषा करने वाली सास पाकर धन्य समझने लगी। कुछ दिनों के उपरांत जैसे- जैसे सगे संबंधियों को घर में बच्चे के जन्म होने की खबर मिलने लगी। वैसे-वैसे वे लोग उनके घर बधाई देने आने लगे। जैसे ही दूसरे गॉंव में रहने वाली ननद को यह खबर मिली। वह ननदोई जी के साथ उसके घर बिटिया को देखने के लिए पहुँच गई। ननद और ननदोई को घर आया देख उसकी सास का सारा ध्यान उनकी खातिर दारी करने में लग गया। यहॉं तक कि आकाश भी बीच- बीच में अपनी बिटिया की सुध लेता था उसने भी सुध लेना छोड़ दिया।वह भी सीधे आफिस से आकर बहिन और अपने जीजा के साथ गप्पे मारने बैठ जाता था . कई बार तो ऐसा होता था पूरे दिन में एक बार भी उसकी सास उसके कमरे में नहीं जाती थी। बच्ची की देखभाल करना तो दूर की बात उसको झांकने तक नहीं आती थी। सास का अचानक बदला हुआ व्यवहार देखकर वह बहुत दुखी हो गई। मगर वह शिकायत करना भी चाहती तो किससे करती? चुपचाप वह मन ही मन घुटकर रह जाती थी। आकाश तो घर के किसी सदस्य के बारे में उसके मुँह से एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं था।
एक दिन की बात थी सुबह - सुबह जब वह नहा-धोकर अपनी बच्ची को संभालने लगी। तब हर रोज की तरह उसकी सास ने उसके लिए दूध पंजीरी लाकर खाने को दे दी और फिर घर के कामो में इतना व्यस्त हुई कि जैसे पता ही न हो कि घर में एक नवजात बच्चा भी है . चेतना को प्रसव के बाद काफी कमजोरी आ गई थी तब भी वह धीरे-धीरे अपना काम खुद करने की कोशिश करने लगी। अगर किसी भी चीज की उसे जरूरत पड़ती तो वह किसे बुलाती इसलिए वह हिम्मत करके खुद ही उठ जाती .वह तो शादी से ही दुर्बल थी। उसका मन सास के अचानक बदले हुए व्यवहार को देखकर दुखी हो गया था। वह मन से बुरी तरह टूट चुकी थी। खाना खाने का भी मन नहीं कर रहा था। मानो उसकी भूख मर गई हो। मगर वह यह भी जान रही थी कि अगर उसने पौष्टिक आहार नहीं खाया तो जल्दी से सामान्य अवस्था में नहीं आ पाएगी। उसके शरीर में स्थायी तौर पर कमजोरी रह जाएगी। वह यह भी सोचने लगी कि दो महीने बाद उसे वापस अपना घर संभालना है तथा साथ- साथ आफिस की ड्यूटी भी ज्वाइन करनी पडेगी। मगर किसी का भी इस तरफ ध्यान नहीं जा रहा था। ना ही उसकी सास का और ना ही आकाश का। सास तो केवल अपनी बेटी और दामाद की आवाभगत में व्यस्त रहने लगी थी। वह तो केवल उनके लिए तरह- तरह के पकवान बनाने में लगी रहती थी। डॉक्टर ने अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय चेतना को हिदायत दी थी, " देखो जब तक तुम्हारे टॉंके खुल नहीं जाए तब तक किसी भी तरह का भारी खाना मत खाना क्योंकि प्रसव के बाद पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है"।
तब पास में खड़ी उसकी सास ने भी हामी भरते हुए कहा था ," जी डाक्टर साहिब आप बिलकुल चिंता न करे मै मेरी बहू का पूरा ख्याल रखूंगी , मुझे भी पता है कि १० -१५ दिनों तक हल्का खाना ही लेना चाहिए . मै इसे कभी दलिया , कभी खिचड़ी आदि बना कर देती रहूंगी "
चेतना ने डॉक्टर की बात को मानते हुए हामी भरी थी। डॉक्टर साहब मैं आपकी बात का पूरा- पूरा ध्यान रखूंगी । मगर अब उसकी सास पहले दिनों की तरह न तो उसके लिए अलग से कुछ बनाती न ही उसे कुछ पूछने आती । मगर बहुत ज्यादा समय बीतने के कारण भूख लगने के बाद भी किसी से कुछ कह नहीं पाती थी , जब उसके पति ही उसकी सुध- बुध नहीं लेते थे तो और किसी को तो वह क्या कह पाती .। उसदिन सास ने उसे दूध और पंजीरी के सिवाय खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया। घर के सारे लोगों ने दोपहर का खाना खा लिया था। मगर उसके बारे में किसी को कुछ भी याद नहीं था जैसे कि उसका कोई वजूद ही नहीं है घर में । लगभग शाम के चार बजे के आस-पास उसकी सास ने कमरे में प्रवेश किया और कहने लगी,।
"चेतना लो यह तुम्हारा खाना। दूध और चावल मिला कर खा लो। दूध- चावल खाने से तुम्हारी छाती में दूध भी उतरने लगेगा। अभी तक तुम्हारे स्तनों में बच्ची का पेट भरने लायक पर्याप्त दूध नहीं आ रहा है। इस वजह से बच्ची भी देखो न कितनी कमजोर होती जा रही है। भूखे पेट रहने से वह सारा दिन रोती रहती है"। चेतना के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। उसका वह खाना देखकर मन भर आया। बिल्कुल भी इच्छा नहीं हो रही थी। कि वह इस तरह का खाना खाए। उसे रह- रहकर अपनी मॉं की याद सताने लगी। जब वह एक बार घर में बीमार पड़ गई थी। उसकी मॉं ने सिरहाने के पास बैठकर अपने हाथ से निवाले तोड़- तोडकर जबरदस्ती खाना खिलाया था. मगर अब ये सब देख चेतना की आँखें आँसुओं से भर आई। उसे लगने लगा जैसे कि वह इंसान न होकर कोई दूध देने वाली गाय या बकरी हो । नहीं तो ऐसी अवस्था में इतना हल्का खाना उसे क्यों खिलाया जाता? उसको सुबक- सुबक कर रोता देखकर हौसला देने के बजाय उसकी सास गुस्से से तमतमा उठी और कहने लगी। तुम तो ऐसे धाड़ मारकर रो रही हो जैसे कि हम तुम्हारे दुश्मन हो . ये बातें हमारे बड़े बजुर्गो ने सिखाई है . क्या हमें पता नहीं है कि तुम्हें क्या खाना देना चाहिए और क्या नहीं? अभी चेतना कुछ बोली भी नहीं थी कि पास में खड़ा हुआ आकाश भोंहे चढ़ाते हुए गरजने लगा , " आखिर तुम अपने आप को समझती क्या हो , हम क्या तुम्हे दुखी रखते हैं ? बार- बार रोकर तमाशा करने लगती हो .अगर तुम्हारा मन किसी और चीज को खाने को होता है तो क्या मुँह से बोल नहीं सकती , तुम क्या गूंगी हो? या यहाँ कोई मेहमान आई हो "
चेतना फिर भी चुप रही उसे लगा कि रोकर उसने पता नहीं कौन सा गुनाह कर दिया हो जो सब लोग उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं
कोई उसको दिलासा तो क्या देता ऊपर से उसके ननद और नंदोई भी उसको ही कसूरवार ठहराने लगे और ननद तो आग में घी का काम करते हुए सबके सामने बोली , " इसे शायद हमारा यहाँ आना अच्छा नहीं लगता तभी बिन बात पर हंगामा कर देती है , इतना ही नापसंद है हमारे घर का खाना तो अपने घर क्यूँ नहीं चली जाती "
ननद की टेडी बात सुनकर चेतना से रहा नहीं गया और वह कहने लगी , " दीदी मै तो जाना ही चाहती थी पर मांजी ने मुझे जाने नहीं दिया "
इसका मतलब हम लोग ही खराब है , क्या दुनिया में तुमने ही निराला बच्चा पैदा किया है जो इतने नखरे कर रही हो , गाँव में तो बच्चा पैदा होने के चार दिन बाद ही सब घर का चौंका- चूल्हा करने लग जाती है औरते. ये शहर की लडकियां कुछ ज्यादा ही नाजुक बनती है और ऊपर से इनके माँ- बाप अपनी लड़कियों को कुछ सिखाना नहीं जानते "
ननद की इतनी कड़वी बातें सुनकर तो चेतना खुद को बहुत ही अपमानित महसूस करने लगी कि जैसे वह कटघरे में खड़ी कोई मुजरिम हो . चारो तरफ से उस पर शब्दों के बानो की बौछार हो रही थी जिससे उसका सीना छलनी हुआ जा रहा था . पर कौन था उसकी पुकार वहाँ सुनने वाला ?, यहाँ तो उसके पक्ष में बोलने वाला भी कोई नहीं था .
तभी उसके ससुर ने फैंसला सुनाते हुए कहा , " यदि चेतना को आपकी सेवा में कमी नजर आती है तो बेहतर है कि इसे कल ही इसके माँ बाप के घर भेज दिया जाए , " आकाश बेटे इसके घर फोन लगा कर उन लोगो को कल यहाँ बुला लो तांकि वे अपनी लाडली को अपने घर ले जाएँगे जहां इसकी भरपूर सेवा होगी "
इतनी बात सुनने की देर थी कि आकाश ने झट से चेतना के घर पर फोन कर दिया और कहने लगा , " जी मै आकाश बोल रहा हूँ , बात कुछ इस तरह है कि चेतना का यहाँ मन नहीं लग रहा है तो आप लोग कल यहाँ आ जाए और इसे अपने साथ ले जाए और जब तक इसका मन नहीं भर जाए इसे अपने साथ ही रखें "
आकाश को फोन करता सुनकर चेतना मन ही मन घुटने लगी कि उसने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया है जो उसके माता- पिता को बेवजह परेशान किया जा रहा है . क्या यही दिन देखने के लिए उन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को इन लोगो के हवाले किया था? , इस तरह कई तरह के विचारों के सागर में डूबते- डूबते उसका मन हो रहा था कि वह किसको अपनी दास्ताँ सुनाकर अपना जी हल्का करे .वह खुद को बिलकुल असहाय महसूस कर रही थी कि जैसे किसी ने तपती रेगिस्तान की रेत पर उसे नंगे पाँव चलने के लिए छोड़ दिया हो , जहां दूर दूर तक कोई छाँव नजर नहीं आ रही थी .
अगली सुबह उसके माता- पिता आकाश के कहने पर उसके ससुराल पहुँच गए .वह मन ही मन बुरी तरह घबरा रही थी कि पता नहीं कौन सा पहाड़ टूटने वाला है . अभी वह लोग बैठे भी नहीं थे कि उसकी सास ने शिकायतों की लम्बी चोडी लिस्ट उनके सामने रखनी शुरू कर दी . सब लोग उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे . उसके पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं था , सब कुछ सुनकर चेतना के माता- पिता का मुँह सूखकर काँटा हो गया . फिर उसकी सास ने अपना फैंसला सुनाते हुए कहा , " चेतना को लगता है कि हम उसकी देखभाल ठीक तरह से नहीं कर पाते इसलिए बेहतर है कि आप अपनी लाडली को अपने साथ ले जाए और इसके नखरे जी भर कर सहे "
उसकी सास पता नहीं गुस्से से क्या- क्या अनगर्ल बोले जा रही थी कि उसके माँ बाप की आँखें भी भर आई और सब कुछ सुनकर तो चेतना का कलेजा मुँह को आ रहा था कि लड़की होना कोई पाप हो जैसे .कुछ देर की चुप्पी के बाद उसकी माता जी बच्ची को देखने के बहाने उसके कमरे में आई और चेतना को गले लगा कर रोने लगी और उसे होंसला देने लगी , " चेतना तू घबरा मत अगर तेरा यहाँ रहने का मन नहीं है तो मै कल ही तेरे भाई को सुबह तुझे लेने के वास्ते भेज दूँगी तू अपना और गुड़िया का सामान तैयार रखना "
माँ की ढाढस भरी बातें सुनकर चेतना को कुछ राहत मिली , और बस तब क्या वह एक रात भी उसके लिए गुजारना पहाड़ की तरह लग रहा था . ख़ुशी- ख़ुशी उसने अपना और अपनी बेटी का सामान एक अटैची में पेक कर लिया . उसे लग रहा था जैसे कि वह पिंजरे में कैद कोई पंछी हो और जो अपनी आजादी के लिए अपने पंख भी न फडफडा पा रहा हो .सारी रात यूँही करवटे लेते बीत गई और नींद का कहीं नामो निशाँ नहीं था . वह मन ही मन सोच रही थी कि घर जाकर न सिर्फ वह अपने रिश्तेदारों से मिलेगी बल्कि अपनी बचपन की सहेलियों से मिल पाएगी , यही सोचते- सोचते वह कल्पना के घोड़े पर सवार पता नहीं क्या- क्या सोच रही थी . उसकी तन्द्रा भंग हुई अपनी सास की आवाज सुनकर .

उसकी सास जोर- जोर से चेतना को आवाज दे रही थी जबकि लगभग ग्यारह बजे का समय हुआ था , " चेतना तुम्हारे घर से तुम्हारी मम्मी का फोन है आकर सुन लो मैंने होल्ड किया है "
चेतना बड़ी दुविधा में पड़ गई ये सुनकर कि इस समय फोन आने का क्या कारण हो सकता है , सोचते- सोचते उसने रीसीवर अपने कानो पर लगाया .उधर से उसकी माँ ने कहना शुरू किया , " चेतना बेटे मेरी बात ध्यान से सुनना , हम तुम्हारे माँ बाप है इस लिए हर हाल में तुम्हारा भला ही चाहेंगे . बेटे जो भी बात हुई है हम सब समझते है तेरा कोई कसूर नहीं है पर न तो हम तेरे सास- ससुर को कुछ कह सकते है न जमाई जी को , हम तो तुम्हे ही अपना समझ के समझा सकते है . तेरे पिता जी और मैंने बहुत विचार विमर्श किया इस बारे में कि हम ठहरे लड़की वाले इस लिए बेटे अब तुम्हारा असली घर तुम्हारा ससुराल ही है और तुम्हे अपने सास- ससुर को ही अपने माता- पिता की तरह समझना होगा . तेरे पति ही तेरे लिए भगवान् का स्वरुप है , और अगर कोई बात कोई तुझे कह भी दे तो बेटे बुरा मत माना करो बल्कि अपनी सेवा और प्यार से सबका इस कदर दिल जीत लो कि वह तुम्हारी हर बात माने .और तुम तो खुद बहुत समझदार हो . मै ये नहीं कह रही कि ये घर तेरा अपना नहीं है , तुम कभी भी दामाद जी के साथ याहाँ आकर जितने दिन चाहो रह सकती हो .पर शादी के बाद लड़की का असली घर उसका ससुराल ही होता है एवं उसके पति ही उसके लिए सब कुछ होते हैं .हमारे बड़े बजुर्ग कहा करते थे कि वह लड़की बड़ी खुश नसीब होती है और स्वर्ग में जाती है जिसकी अर्थी उसी घर से उठती है जिस घर में उसकी डोली जाती है ."
कहते- कहते उसकी माँ रोने लगी और चेतना कुछ बोले इससे पहले ही रीसीवर रख दिया . चेतना तो फोन सुनकर मानो जड्वंत हो गई , अगर वह बोलना चाहती तो भी फोन पर क्या बोल पाती .उसके मुँह पर तो जैसे ताला लग गया हो . लाख कोशिश के बावजूद भी उसकी आँखों में आँसू भर आये और गाल पर लुडकने लगे, उसे लगा कि भरी दुनिया में कौन है यहाँ उसका? किसे वह अपना कहे?

चेतना यह सोचने के लिए विवश हो गई कि क्या वह हमेशा की तरह कभी माता- पिता और कभी अपने पति की दया पर निर्भर मात्र एक आश्रित की तरह है ? आखिर एक औरत होने के नाते उसका वजूद क्या है ?