Thursday 5 September, 2013

प्रियतम !

प्रियतम !

हर बार की तरह....................

इस बार भी जब आओगे
इक आध दिन के लिए
बहुत मिन्नतों  के बाद  
तो जाने नहीं दूंगी
पकड़ लूँगी बैयाँ
पैर पड़ जाउंगी
रोक लूँगी
हमेशा के लिए
या फिर संग में  हो लूँगी

इस बार भी जब आओगे
जानती हूँ
अपनी मीठी बातों से,
मासूमियत से
मुझे कर लोगे वशीभूत
यह कहकर
हमारी आत्माएं तो एक है
हर पल
 तुम मेरे संग रहती हो
देने लगोगे  दुहाई
 जमाने भर की
मजबूरियों की



इस बार भी जब आओगे
साथ अपने  लाऊँगी
 कितने सारे सपने
अनगिनत बरसाते
कसमसाती रातें
खिड़की से मुंह चिडाती
चाँद की चांदनी
सीने को धड्काती
रात की रानी  
भीगे तकिये का गिलाफ
चादर की सिलवटें
बेरहम करवटें
बार- बार निहारता
मूक आईना
 बधिर दर्रो दीवार
जो गवाह है मेरी सिसकियों की

इस बार भी जब आओगे
सब कुछ  परत  दर परत
 खोलकर रख दूंगी
 सामने तुम्हारे
बार- बार निहारता
मूक आईना
 बधिर दर्रो दीवार
जो गवाह है मेरी सिसकियों के 
तब तो तुम जरूर पसीज जाओगे
इतने कठोर दिल नहीं हो सकते

इस बार भी जब आओगे
इक आध  दिन के मिलन
में अपने को संतुष्ट कर लूँगी
अपने को समझा बुझा लूँगी
अगली कई अनगिनत रातों के लिए
बुझे हुए बेशुमार पलों के लिए
 खुद को रोज मर्रा के कामों
में अपने को अभ्यस्त करने का
 अभिनय करने लगूंगी

इस बार भी जब आओगे
कभी न पूरी होने  वाली उम्मीद
हर पल हर दिन
खुद को समझाते
कभी तो वो दिन आएगा
जब सदा के लिए
समुन्द्र में नदी की तरह
 विलीन हो जाउंगी

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