Wednesday 5 October, 2011

"दिहाड़ीदार मजदूर"


"दिहाड़ीदार मजदूर"

दिहाड़ीदार मजदूर दिन भर काम करता है
रातों को थककर चूर आराम करता है

पेट की खातिर कभी ऊंचे पेड़ पर चढ़ता है
तो कभी पेड़ को अपने काँधे पर चढ़ाता है

बिस्तर नहीं तो धरती के सीने पर सोता है
आसमान तले रातों में तारे गिनता है

हर दिन काम करता तो अगले दिन पेट भरता है
सोते हुए गाड़ियों का शोर कहाँ सुन पाता है

बेफिक्र हो कर नींदों में कल के सपने बुनता है
हर महीने की पहली को घर मनीआर्डर करता है

सरकारें अपने महलों में सबसे बेखबर सोती हैं
क्या पता किसे कल का सूरज नसीब होता है ?


ना जाने कब कोई रईस जादा नशे में धुत्त बेरहमी से
सड़क किनारे सोते गरीब को पैरों तले कुचलता है

मनीआर्डर की जगह घर पर पहली को तार पहुँचता है
आँगन का पौधा क्यों पतझड़ के तूफ़ान में उजड़ता है ?

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