जैसे ही ट्रेन ने अपनी रफ़्तार पकड़ी ना जाने कब दिवाकर अतीत की यादों में खो गया . उसे रह- रह कर वो दिन याद आ रहा था जब उसका इंजीनीयरिंग कालेज में दाखिले का अंतिम दिन था . दिवाकर बचपन से ही पढ़ाई में चारों भाई- बहनों में सबसे होशियार था और उसके अच्छे अंकों के कारण शहर के जाने- माने इंजीनीयरिंग कालेज में उसका नंबर आना स्वाभाविक ही था . परन्तु उसके घर की माली हालत कुछ ठीक नहीं थी इसलिए पिताजी अपनी सीमित आय में दाखिले के पैसों का बंदोबस्त नहीं कर पाए थे .दिवाकर के सभी दोस्तों ने कालेज में दाखिला ले लिया था . दिवाकर को अपना भविष्य अन्धकार में नजर आ रहा था .जिन लड़कों का रैंक उससे काफी कम आया था उन्होंने भी दाखिला करवा लिया था . दिवाकर परेशान हालत में इधर से उधर घूम रहा था .
दिवाकर को परेशान देखकर आखिर उसकी माँ से रहा नहीं गया और वो उसके पिताजी को बुलाकर कहने लगी ,
" आप बेशक हार मान ले पर मैं अपने होनहार बेटे का जीवन बर्बाद नहीं होने दूंगी और उसका सपना जरुर साकार करुँगी "
पिताजी बीच में ही खीजते हुए बोले ,
"तुम क्या करोगी ? कभी स्कूल की शक्ल भी देखी है जीवन में जो इतनी बड़ी- बड़ी बातें कर रही हो . क्या कोई गड़ा हुआ खजाना हाथ लग गया है जो दाखिले के लिए निकाल कर दे दोगी"
" गड़ा हुआ खजाना ना सही पर मै मेरे बेटे को इंजीनीयर बनाने के लिए अपने गहने तो बेच ही सकती हूँ . आज कल गहने कौन पहनता है और किस दिन काम आयेंगे "
पिताजी गुस्से से आग बबूला हो गए " पागल तो नहीं हो गई हो , अब क्या मै तुम्हारे गहने बेचने जाऊँगा तो मेरी क्या इज्जत रह जाएगी "
" जब तुम्हारा बेटा इंजीनीयर बन जाएगा तो तुम्हारा ही सीना गर्व से फूलेगा तब सब बातें पीछे रह जायेंगी "
इस तरह काफी मिन्नतों के बाद आखिर दिवाकर के पिताजी राजी हो गए और दिवाकर का दाखिला इंजीनियरिंग कालेज में हो गया . दिवाकर ने अपनी मेहनत और लग्न से काफी अच्छे अंकों में डिग्री प्राप्त कर ली और देश की जानी मानी कंपनियों से उसे नौकरी की पेश- कश आने लगी .
दिवाकर के मामा और ज्योत्सना के पिता गहरे दोस्त थे , उन्होंने दिवाकर की काबलियत देखते हुए ज्योत्सना के लिए दिवाकर का हाथ माँग लिया . इधर दिवाकर ने अपनी पहली नौकरी ज्वाइन की और उधर उसका विवाह ज्योत्सना से हो गया . इस तरह उसने अपनी जिन्दगी के दो सफ़र एक साथ शुरू किए . दिवाकर को एक दम से नई जगह पर नौकरी के लिए जाना था तो एक बार उसने अकेले ही जाना बेहतर समझा . दिवाकर ने ज्योत्सना को प्यार से समझाते हुए कहा ,
" देखो ज्योत्सना नई- नई जगह के बारे में अभी मुझे कोई जानकारी नहीं है इसलिए मै एक बार अकेले ही चला जाता हूँ . जब मैं वहाँ सब कुछ व्यवस्थित कर लूँगा और कंपनी का घर भी मिल जाएगा तो छुट्टी मिलते ही मै तुम्हे भी अपने साथ ले जाऊँगा तब तक तुम यहीं गाँव में माँ और बाबू जी के साथ रहो "
इतना क्या सुनना था ज्योत्सना तो जैसे एक दम हैरान परेशान हो गई और बोली ,
" दिवाकर तुम्हारे बिना मै अकेले यहाँ नहीं रह पाउंगी . वैसे भी गाँव के माहौल की मुझे कोई जानकारी नहीं है इसलिए जब तक तुम अपना घर वहाँ व्यवथित नहीं कर लेते मै अपने माता- पिता के पास ही रहूंगी . "
पूरे एक महीने के बाद दिवाकर ज्योत्सना को छुट्टी मिलने पर जब उसके मायके उसे लेने गया तो उसे बात- बात पर अहसास होने लगा कि ज्योत्सना को अपने माता- पिता की शान शौकत का कुछ ज्यादा ही घमंड है .वह बात- बात पर दिवाकर के घर के और गाँव के माहौल पर कटाक्ष कर देती थी . दिवाकर चाहता था कि वह जब इतनी दूर आया है तो कुछ दिन अपने माता- पिता के पास भी रहे पर ज्योत्सना को तो गाँव जाना बिल्कुल भी गवारा नहीं था . नई- नई शादी हुई थी इसलिए दिवाकर चुप रह जाता . इस तरह दोनों ने आखिर अपने घर से मीलों दूर नई जगह पर अपनी गृहस्थी की शुरुआत की .
* तभी दिवाकर का ध्यान भंग हुआ जब अक्षिता कहने लगी ,
" पापा , पापा बहुत प्यास लग रही है, कोल्ड ड्रिंक लेकर दे दो "
दिवाकर अपनी पत्नी ज्योत्सना को उसके मायके एम्. ए. की पढ़ाई करने के लिए छोड़ कर आ रहा था .जब ज्योत्सना ने बी . ए . की पढाई ख़त्म की ही थी तभी उसका विवाह दिवाकर से हो गया था . दिवाकर के विवाह को लगभग दस वर्ष बीत चुके थे. अब जब अक्षिता बड़ी हो गई थी तो ज्योत्सना घर पार सारा दिन बोर हो जाती थी इसलिए दिवाकर ने ही उसे अपनी पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी थी वैसे भी ज्योत्सना शुरू से ही पढ़ने में होशियार रही थी . दिवाकर का गाँव और ज्योत्सना का मायका पास- पास में थे . ज्योत्सना शुरू से ही बड़े शहर के माहौल में पली- बड़ी थी. अक्षिता को ज्योत्सना की गैर मौजूदगी में अपनी माँ की कमी महसूस ना हो और किसी तरह की दिक्कत पेश ना आए इसलिए दिवाकर अपनी माँ को अपने साथ अपनी नौकरी करने वाली जगह लेकर जा रहा था . दिवाकर एक मल्टीनैशनल कंपनी में बतोर इंजीनीयर काम करता था जहाँ तक ट्रेन द्वारा पहुँचने में काफी लम्बा सफ़र तय करना पड़ता था
दिवाकर को रह -रह कर आज फिर अपनी माँ की कुर्बानियां याद आ रही थी . दिवाकर को ज्योत्सना की गैर मौजूदगी में भी अपनी माँ के होते हुए अक्षिता और घर की देखभाल में कोई परेशानी नहीं आई .दिवाकर की माँ शुरू से ही गाँव में रही थी और पिताजी के स्वर्गवास के बाद तो खेतों की जिम्मेवारी खुद अकेले ही संभाल लेती थी .जब कुछ दिनों बाद उनकी काम वाली बाई छुट्टी पर चली गई और इस बीच दिवाकर भी काफी बीमार पड़ गया . परन्तु उसकी माँ इतनी धैर्यवान थी कि इतनी उम्र हो जाने के बावजूद भी काम वाली के ना आने पर भी सब काम अकेले ही कर लेती थी . दिवाकर अपनी माँ को काम करते देख अनायास ही सोचने लगता था कि कैसे ज्योत्सना काम वाली के ना आने पर सारा घर सर पर उठा लेती थी . वैसे भी ज्योत्सना अपने माँ- बाप की इकलोती बेटी थी इसलिए कुछ ज्यादा ही लाड -प्यार से पली- बड़ी थी . दिवाकर को अपनी नौकरी के साथ- साथ ज्योत्सना की घर के काम- काज में भी मदद करनी पड़ती थी . दिवाकर बहुत ही सहनशील था और वह किसी भी कीमत पर घर की शान्ति बनाए रखना चाहता था .
ज्योत्सना की गैर मौजूदगी में दिवाकर घर पर और अक्षिता पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देता था तांकि वापिस आकर ज्योत्सना को कोई शिकायत करने का मौका ना मिले . अक्षिता की परीक्षा के दिनों में भी दिवाकर उसे आफ़िस से छुट्टी लेकर हर विषय खुद ही पढ़ाता था तांकि वह अच्छे अंक प्राप्त करके पास हो सके . .
देखते- देखते तीन महीने भी बीत गए और ज्योत्सना अपनी एम् ए . की परीक्षा देकर लौट आई . अपनी तरफ से दिवाकर ने हर मुमकिन कौशिश की थी कि इतने दिनों के बाद घर आने पर ज्योत्सना को कोई परेशानी ना हो और ना ही कोई शिकायत करने का मौका मिले . परन्तु ज्योत्सना तो जैसे आदत से मजबूर थी . एक तो दिवाकर की माँ के साथ उसकी शुरू से ही एक मिनट भी नहीं बनती थी बस अब तो हर बात पर उसे कोई ना कोई मौका मिल जाता था कुछ ना कुछ बोलने का . ज्योत्सना उसकी माँ के आगे खुद को ज्यादा ही अप टू डेट समझती थी .दिवाकर की माँ कुछ पुराने ख्यालात की थी ,जैसे कि पुराने समय की अक्सर औरतें होती हैं .ज्योत्सना हर बात पर शिकायत करती और चिडचिड़ा जाती और दिवाकर को भला बुरा कहने लगती
" यदि घर की हालत इस तरह से जाहिलों के हाथों से खराब करवानी थी तो क्या जरूरत थी मुझे एम्. ए. करवाने की. पीछे से एक भी काम सही ढंग से नहीं हुआ है "
दिवाकर यह सब सुन कर भी चुप रहता . उसे समझ नहीं आता था कि वह क्या कहे. मन ही मन वह यह जरुर सोचता कि तीन महीनों से उसकी माँ ने अक्षिता की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी और उसके बीमार होने के बारे में पूछना तो दूर बल्कि हर चीज में नुक्स निकालना उसकी आदत ही बन गई. अक्षिता की परीक्षा के परिणाम से भी वह संतुष्ट नहीं थी और उसने दिवाकर को भी बहुत भला- बुरा कहा . दिवाकर मन ही मन बहुत दुखी होता यहाँ तक कि उसकी माँ भी बहुत परेशान रहने लगी और बार- बार दिवाकर को वापिस गाँव छोड़ कर आने की जिद करने लगी .
क्या इसी दिन के वास्ते उसकी माँ अपना घर अपना देस छोड़कर उसके साथ इतनी दूर उसका घर देखने के लिए आई थी . यहाँ पर तो ना उसकी किसी से जान पहचान थी ना ही यहाँ की भाषा वो समझ पाती थी .
दिवाकर की मन ही मन ख्वाइश थी कि घर जाने से पहले वह अपनी माँ को कोई सोने का गहना बनवा कर दे जिन्होंने उसकी पढ़ाई के लिए इतनी कुर्बानी दी थी और उसे इस काबिल बनाया कि वह अच्छे से अपना जीवन गुजर- बसर कर सके . ज्योत्सना को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत भड़क गई और कहने लगी ,
" हाँ , हाँ , इसीलिए तो कमाते हो तांकि सब अपने गंवार रिश्तेदारों पर लुटा सको . मेरे और अक्षिता के प्रति तो जैसे तुम्हारी कोई जिम्मेवारी है ही नहीं "
दिवाकर की माँ ज्योत्सना की शूल भरी बातें सुनकर बहुत दुखी होती और एक दिन दिवाकर से कहने लगी,
" दिवाकर तूँ ये कान के बूंदे यहीं पर रख ले ,कल को अक्षिता के काम आ जाएँगे क्योंकि अब इस उम्र में मै इन्हें पहन कर कहाँ जाउंगी और तुम्हारी पत्नी को भी तसल्ली रहेगी "
दिवाकर बिना कहे अपनी माँ की बात को समझ गया कि इतने हलकी चीज उन्हें पसंद नहीं आई थी क्योंकि गाँव में सभी औरतें कानों में बड़े- बड़े बूंदे पहनती थी.
दिवाकर की माँ मन ही मन सोचने लगी कि पहली बार तो दिवाकर ने उसे कोई चीज लेकर दी है और अगर वह गाँव जाकर सबको ये कुंवारी लड़कियों के पहनने लायक बूंदे दिखायेगी तो लोग क्या बात नहीं करेंगे . अगर बेटे ने कुछ बनवा कर देना ही था तो कोई ढंग की चीज तो देता तांकि चार दिन पहनने लायक तो होती. ये सब सोचकर उसकी माँ का मन उदास हो जाता .
दिवाकर यह सब बातें देख- सुनकर मन ही मन बहुत हताश होता कि वह दिन भर घर से बाहर नौकरी करता है और अपनी तरफ से हर एक को खुश रखने की हर मुमकिन कौशिश करता है फिर भी उसकी भावनाओं का ख्याल रखने की कोई कोशिश नहीं करता . क्या वह पुरुष है इसी लिए उसको किसी से शिकायत करने का कोई हक़ नहीं है ? वो क्या चाहता है यह कोई जानना नहीं चाहता .क्या यही वास्तविक सच है हमारे पुरुष प्रधान समाज का . ? वह किसी के सामने रो भी नहीं सकता यह सोचते ही उसकी आँखें नम हो गई. वह अशांत मन से दिग्वलय में डूबते दिवाकर की ओर देखने लगा जैसे उसके आस पास अँधेरा फैलने लगा हो.
और उसने अपनी दोनों आँखें बंद कर ली......
purush ke bechain dil ko samajhne ka aapka pryas.
ReplyDeleteWell Done Alka Ji, Thanks n congrats for your this article......! I really appreciate, You Mam..........! Keep It Up.....!
ReplyDeleteIt is a very thought provoking write-up very beautifully presented.Though, we are living in space age, but the greatest tragedy one comes across that our present generation has started neglecting their Parents very badly who had nurtured and groomed them without caring for their own care & comforts. It has been our tradition to shower all our love & affection to old people ,infirm and women as whole but the concept has changed now and we find everything in reverse order. Whether one travels by train or bus, it is almost seen every now & then that no body cares for the comforts of old people, infirm & women. Let us judge as why it is so! To judge self is thing of paramount importance but how to judge oneself is the biggest problem that societies face today. One has to be self-reliant instead of depending on others for everything that we see around and here lies the fallacy. One has to be morally very strong and must inherit ethical values in one’s life, if he/she is keen to have perfection in his/her life. So long, we follow the path of truth, non-violence and inherit passion and wisdom in our life, we are bound to have most likeable life. Perhaps, one may the greatest fool of this universe who does not love his/her Parents who take utmost care after birth of their children, groom them well so that they could rise on their own feet without caring for their own comforts..
ReplyDeletevery nice...ummedo par khara...har shabad chuninda....
ReplyDeleteAlka ji. .bahot sundar varta he. .or apne aaj kaal ki samya ope prakash dala he. .good . . .frr bhi meto yahi kahuga. . .BHULE BHALE BIJU BADHU MAA BAAP NE BHULSO NAHI. . .AGANIT CHHE UPKAR ENA E VISHARSO NAHI.
ReplyDeleteits really beautiful and touching article
ReplyDelete@alka....excellent...
ReplyDeleteVery nice.
ReplyDeleteBahut Hi Kadwa Sach....Bahut Hi Gehari Hakeekat.........!
ReplyDeleteदिवाकर यह सब बातें देख- सुनकर मन ही मन बहुत हताश होता कि वह दिन भर घर से बाहर नौकरी करता है और अपनी तरफ से हर एक को खुश रखने की हर मुमकिन कौशिश करता है फिर भी उसकी भावनाओं का ख्याल रखने की कोई कोशिश नहीं करता . क्या वह पुरुष है इसी लिए उसको किसी से शिकायत करने का कोई हक़ नहीं है ? वो क्या चाहता है यह कोई जानना नहीं चाहता .क्या यही वास्तविक सच है हमारे पुरुष प्रधान समाज का . ? वह किसी के सामने रो भी नहीं सकता.......!
आपकी कहानीं बिलकुल वैसी है जैसी आप हो बहुत प्यारी और सुन्दर है | अब में आपकी कहानियाँ को रोज देखूंगा |
ReplyDeletebahoot hi sunderta se rachi katha,
ReplyDeleteBeautiful writing,is it a real story or is it a story from ur imagination what ever it is it is very good
ReplyDelete2 gud alka ji....very well written.i salute u....4 this
ReplyDeleteAlkaji... i can't explain my feelings in words... its very very touching. God bless u!!!
ReplyDeletesunder baat kahi alka ji
ReplyDeleteअलका जी स्त्रियों की समस्याओं पर आये दिन बहुत कुछ पढने को मिलता है पर पुरुष के मनोभावों और समस्याओं पर प्रकाश डालती आपकी रचना के लिए अपको बहुत बहुत बधाई ..........
ReplyDeleteAlka Ji, Your this story also deserves appreciation and commendation from the serious readers like me. You being a lady, have shown a courage & boldness to highlight an important issue of a man of this society who is being victimized and harassed by the so-called 'Modern' newly wedded girls without any cause by flouting and tarnishing all social and moral values of our enriched Indian culture without knowing that one day they will also have to face the same situation in their old age. However, I think, it would have been appreciated if climax is also so excited and impressive like other ingredients of the story. This needs to be taken care of in future.
ReplyDeletepurush man ko tatolne ke is prayas ke liye aapko saadhuwad.......aap ek achchhi kahanikar hain.....aapko badhai.....
ReplyDeleteप्रिय अलका,
ReplyDeleteआपकी कहानी को आज देखने का मौका मिला.....हाँ "देखने" का क्यूंकि मैने मात्र देखा है आपके इस नए कहानी "दिग्वलय" को....बस उड़ती हुयी नजरों से....चाह कर भी कहानी के बीच पत्रों को पहचान न सका और उनके चरित्र को जान न सका.....आपकी कहानी में डूब नहीं सका इसके लिए माफ़ी चाहूँगा. आपको पता है न की जब मैं कहानी पढ़ता हूँ तो उस में डूबने की कोशिश करता हूँ और उसके बाद ही कमेन्ट करता हूँ.....विस्तृत कमेन्ट....हा हा हा....जो कहानी के कुल शब्दों का संभवतः १० प्रतिशत तो होता ही है. अगर आपको खुश करने के लिए कुछ भी कमेन्ट कर दूं ....अच्छा सा....तो ये इमानदारी नहीं होगी....न तो आपके प्रति और ना ही कहानी के प्रति और ना ही कहानी के पात्रों के प्रति.
थोडा व्यस्त हूँ और समय निकाल कर सोशल साईट पर आ जाता हूँ....विशेषकर भोजपुरी से जुडे मुद्दों पर अभी राजनितिक गलियारा भी गरम है और भोजपुरी से जुडी हुयीं सोशल साईट भी.....भोजपुरी से जुडी हुयी कुछ वचनबद्धता है जो मुझे पूरा करने की जिम्मेवारी लोगों ने दे रखी है एक विश्वास के आधार पर. आपको तो पता हीं है की कई महीनों की गंभीर अस्वस्थता के बाद अब ये व्यस्तता मेरे लिए उचीत नहीं, लेकिन क्या किया जा सकता है अलका....विश्वास तोडा नहीं जा सकता न.
आपकी कहानी को पढ़ने के बाद और उसमें डूब जाने के बाद ही कमेन्ट कर सकूँगा मैं.....ठीक पहले की तरह ही.
आपका
राज