Wednesday 27 October, 2010

जीवन-धारा


मै इक नदी हूँ ऐसी
जल से भरी फिर भी प्यासी
ना जिसका कोई अंत ना जिसका कोई आदि !

जब हूँ निकलती पर्वतों की ऊँचाइयों से
लाखों कंकर अपने में समाए
गर्भ में अपने रेत के घर बसाए ,

कभी नागिन सा बल खाकर चलना
तो कभी गिरती हूँ बनकर झरना,

जब समुद्र का जल मुझ पर आन बरसे
तब हृदय मेरा मिलने को तरसे ,

बहती हूँ आवेग में तोड़ अपनी ही धारा
मुझे तो भाए उदधि का जल ही खारा ,

जिधर देख उधर हो जाता है जल- थल
झूम कर जब बहती हूँ मै कल- कल ,

मीलों दूर चल कर हो गई हूँ निढाल
मंजिल पाकर अपनी हो जाउंगी निहाल ,

वह मंझर तो कुछ ओर ही होगा
जब मेरा समुद्र में विसर्जन होगा ,


मै चाहती हूँ बस अब थम जाना
समुद्र के आगोश में बस जाना ,

कई नदी नाले मुझमे मिलते रहे
कई जीवन मुझसे बिछड़ते रहे ,

कई पशु, पक्षी, जीव अपनी प्यास बुझाते रहे
कई मुसाफिर अपनी मंजिल को पाते रहे ,

हूँ जल मग्न पर फिर भी हूँ जल रही ....
विरह की आग में हूँ तड़प रही ,

मुझे मत बांधो!
मुझे मत रोको!
मुझे बहने दो !

मेरे रुख को मत मोड़ो ....
मेरे हृदय को मत तोड़ो,

मुझे प्यार से बस जाने दो.....
मुझे मेरे अस्तित्व को पाने दो ,

मै आधी अधूरी ....
मुझे मत रोको .....
मुझे समुद्र में मिल जाने दो!

2 comments:

  1. well done Alka ji,
    Oceanbound it flows
    streaming and striving
    drenched unquenched
    it flows.
    it flows
    as it has to
    a river is oceanbound,
    sometime sad
    sometime noisy
    sometime serene
    like a a woman
    a river flows.

    ReplyDelete
  2. Please read http://bhamrags.blogspot.com/
    http://unblazed.blogspot.coom

    ReplyDelete