मै इक नदी हूँ ऐसी
जल से भरी फिर भी प्यासी
ना जिसका कोई अंत ना जिसका कोई आदि !
जब हूँ निकलती पर्वतों की ऊँचाइयों से
लाखों कंकर अपने में समाए
गर्भ में अपने रेत के घर बसाए ,
कभी नागिन सा बल खाकर चलना
तो कभी गिरती हूँ बनकर झरना,
जब समुद्र का जल मुझ पर आन बरसे
तब हृदय मेरा मिलने को तरसे ,
बहती हूँ आवेग में तोड़ अपनी ही धारा
मुझे तो भाए उदधि का जल ही खारा ,
जिधर देख उधर हो जाता है जल- थल
झूम कर जब बहती हूँ मै कल- कल ,
मीलों दूर चल कर हो गई हूँ निढाल
मंजिल पाकर अपनी हो जाउंगी निहाल ,
वह मंझर तो कुछ ओर ही होगा
जब मेरा समुद्र में विसर्जन होगा ,
मै चाहती हूँ बस अब थम जाना
समुद्र के आगोश में बस जाना ,
कई नदी नाले मुझमे मिलते रहे
कई जीवन मुझसे बिछड़ते रहे ,
कई पशु, पक्षी, जीव अपनी प्यास बुझाते रहे
कई मुसाफिर अपनी मंजिल को पाते रहे ,
हूँ जल मग्न पर फिर भी हूँ जल रही ....
विरह की आग में हूँ तड़प रही ,
मुझे मत बांधो!
मुझे मत रोको!
मुझे बहने दो !
मेरे रुख को मत मोड़ो ....
मेरे हृदय को मत तोड़ो,
मुझे प्यार से बस जाने दो.....
मुझे मेरे अस्तित्व को पाने दो ,
मै आधी अधूरी ....
मुझे मत रोको .....
मुझे समुद्र में मिल जाने दो!
well done Alka ji,
ReplyDeleteOceanbound it flows
streaming and striving
drenched unquenched
it flows.
it flows
as it has to
a river is oceanbound,
sometime sad
sometime noisy
sometime serene
like a a woman
a river flows.
Please read http://bhamrags.blogspot.com/
ReplyDeletehttp://unblazed.blogspot.coom