Sunday, 14 April 2013


तुम्हारी स्मृतियाँ

स्मृतियाँ जैसे गुजरे वक्त को
पीछे की ओर फलाँगती जा रही थीं तेजी से,
शिमला  के मालरोड  की मिठास ,
गड़बड़झाले की चूड़ियों की खनक,
चौक की मशहूर हरी ठंडाई की मस्ती
मंगलवार को हमारे युग्म करों से हिलाए गए
हनुमान मंदिर के घनघनाते घंटे,
गर्मियों की धूप और जाड़े की सुरसुरी में
सजीली छतरी वाले रिक्शों में सिमट कर
शहर की गलियों में खाए गए हिचकोले,
चंडीगढ़ के मनसा देवी के मंदिर  में महसूसे गए
खुशबुओं के झोंके,
लखनऊ का हर खास अहसास
अचानक जैसे छलक उठा हो
कंप्यूटर की स्क्रीन पर।
सहसा सप्राण-सी होती लगी
मेरे फेसबुक के पन्नों की निर्जीव सतह
मुझे लगा,
जैसे सदेह उतर आई हो तुम सामने
मेरे वेब-पृष्ठों की भित्ति पर अंकित
अपने इन शब्दों के साथ,


वर्षों पहले लखनऊ की भूलभुलैया में 
बिछुड़कर भटक गए
बाहर निकलने का रास्ता तलाशते हमारे प्यार को 
अब साइबर स्पेस के इस पुनर्जन्म में 
अभिव्यक्ति के नए आयाम मिलने जा रहे थे 
हमारे सपनों को जैसे अब नए पंख लगने वाले थे 
उम्रदराज चीटियों की भाँति
काफी इंतजार के बाद निकलने वाले पंख,
आग में कूद पड़ने को आतुर मन को
दाह-स्थल तक उड़ाकर ले जाने को बेताब पंख,
अदृश्य, अलौकिक होंगे 
साइबर स्पेस में उगते हमारे सपनों के ये पंख,
फेसबुक के पन्नों के बीच 
अब उड़कर समा जाया करेंगे हम दोनों 
एक-दूसरे के शब्दों के आगोश में
नित्य, अशरीर
इस दुनिया की नजरों से दूर
अवशेष जीवन के नए अर्थ तलाशते,
एक-दूसरे की सुरक्षित भित्तियों पर 
निरंतर लिखते हुए कुछ गुदगुदाने वाली बातें
और कंप्यूटर के सामने जाग्रत बैठकर 
साइबर-प्रेमालाप में बिताते हुए 
अपनी सारी कसमसाने वाली रातें

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