Tuesday 6 September, 2011

तुम कहते हो.................



मेरी रातें तुम बिन वीरान !

तुम कहते हो तुम सिर्फ मेरे हो..........
फिर क्यों हर सावन मेरे नैनों से बरसता है ?
फिर क्यों तुम्हारा अक्स मेरे होंठों पे थिरकता है ?

मेरी शामें तुम बिन सुनसान !

तुम कहते हो मै तुम्हारी मंजिल हूँ ..........
फिर क्यों नहीं तुम्हारा रास्ता मुझ तक पहुँचता है ?
फिर क्यों नहीं तुम्हारा रूप मेरी बाहों तक पहुँचता है ?

मेरी आहें तुम बिन अनजान !

तुम कहते हो मै तुम्हारी आत्मा हूँ ..........
फिर क्यों मेरा साया परछाई बिन भटकता है ?
फिर क्यों मेरा चेहरा दीवारों के पलस्तर से लिपटता है ?

मेरी साँसें तुम बिन शमशान !

तुम कहते हो हमारा प्यार अमर है ...........
फिर क्यों मेरा ख्याल रेगिस्तान में विचरता है ?
फिर क्यों सपनों में विकृत भयावह बीयाबान टकरता है ?

मेरी आँखें तुम बिन बेजान !

तुम कहते हो हम एक रूह हैं .............
फिर क्यों मेरा मन खंडहर की तरह मचलता है ?
फिर क्यों मेरा बदन सूखे तने की तरह दहलता है ?

3 comments:

  1. Dear Medum
    आपका लेखन कार्य अच्‍छा है अगर आपने धर्म या समाज या धर्म या अर्थ पर कुछ लेखन किया है तो बताएं

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  2. बहुत सुन्‍दर

    अरूण
    http://aroonk2011.blogspot.com/

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  3. quite good expressive poem of unfaithful of a person n upto some extent a wish of being incomplete without the other one.

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