Sunday 7 February, 2010

मंजिल


प्रतीक्षा के कॉलेज का पहला दिन था, वह अपने पिताजी के साथ डी. ए. वी कॉलेज की ओर बस में जा रही थी.वह मन- ही-मन बहुत खुश थी,बस की खिडकियों से बाहर झाँककर प्रकृति की स्वछंद छटा का आनंद उठा रही थी .वह सोच रही थी कि आज के बाद उसे कभी भी स्कूल में होने वाली प्रातकालीन प्रार्थना में खड़ा नहीं होना पड़ेगा.और न ही उसे स्कूल-प्रबंधन द्वारा निर्धारित किसी भी तरह का परिधान पहनना पड़ेगा.आज से वह अपने मन की मालकिन है, वह अपनी इच्छा से मन पसंद कपडे पहन पाएगी. नीले-रंग के सलवार सूट में वह बहुत सुन्दर दिखाई दे रही थी.एक आजाद पखेरू की तरह वह उन्मुक्त गगन की ऊँचाइयों को नापना चाहती थी, तरह-तरह के सपने संजोए हुए नई इच्छाओं, आंकाक्षाओं तथा उमंगो से सरोबार था उसका मन.

पिताजी बेटी के प्रसन्नचित्त मुख-मंडल को देखकर कहने लगे , " बेटी , आज तुम्हारे कॉलेज का पहला दिन है खूब ध्यान लगाकर पढाई करना. जरूर एक–न-एक दिन हमारे कुल का नाम रोशन करोगी, जब तुम आई. ए. एस बन जाओगी. तुम्हारे कॉलेज ने देश के कई आई. ए. एस अधिकारी पैदा किए हैं ."वह इस बात को बहुत अच्छी तरह जानती थी कि पिताजी उससे बड़ी-बड़ी उम्मीदें संजोकर रखे हुए हैं . उसे वह दिन याद आ गया जब मैरिट-लिस्ट में उसका नाम पाँचवे स्थान पर आया था . पापा के चेहरे पर हर्षातिरेक के भाव आसानी से देखे जा सकते थे.

जब पड़ोसियों, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों ने अपने बधाई-सन्देश दिए तो वह गर्व से फूले नहीं समाए. सबको मिठाई खिलाते-खिलाते एक ही बात दोहरा रहे थे कि मेरी होनहार बेटी है, जिस लगन और मेहनत के साथ वह पढाई करती है एक- न-एक दिन खानदान और इस शहर का नाम जरुर रोशन करेगी. कहते है न 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात 'उस दिन पिताजी की आँखों में अजीब-सी चमक थी .आज पिताजी के इस असीम विश्वास और अथाह प्रेम के सागर में गोते लगाते- लगाते कब उसकी आँखें नम हो गई उसे पता ही न चला.रह-रहकर एक ही ख्याल मन के किसी कोने को झिंझोड़ रहा था कि क्या वह पिताजी की इन उम्मीदों पर खरा भी उतर पाएगी .
प्रतीक्षा का जन्म उसकी बड़ी बहिन अनुराधा के पाँच साल बाद हुआ था . जन्म से ही वह बहुत सुन्दर थी गोल-मटोल चेहरा बड़ी-बड़ी आँखें दूसरी लड़की होने के बाद भी माता-पिता ने उसे खूब प्यार दिया था. माँ अक्सर कहती थी कि क्या मेरी यह बेटी किसी लड़के से कम है! उसके जन्म के डेढ़-साल बाद उसका भाई राजीव पैदा हुआ. घर में चारो तरफ ख़ुशी का माहौल था. परन्तु फिर भी उसके माता- पिता ने अपने आजीवन लड़के -लड़की में विभेद नहीं किया था .
इतने अच्छे परिवेश में बचपन के दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला देखते-देखते ही वह कॉलेज की छात्रा बन गई और स्कूल का जीवन बहुत पीछे छूट गया.उसके विचारों की तन्द्रा तब भंग हुई ,जब सामने शास्त्री सर्कल का मोड़ आया और पिताजी उसको ख्यालों में डूबा देख कहने लगे
" प्रतीक्षा कहाँ खो गई हो? , क्या सोच रही हो? आधा-घंटा और लगेगा तुम्हारा कॉलेज आने में”. उसने पिताजी की बात को अनसुना कर दिया कोई प्रतिक्रिया ना पाकर पिताजी ने उसे झिंझोड़ा और उसके चेहरे की तरफ देखने लगे .., " अरे ये क्या तुम तो रो रही हो , ऐसा क्या हुआ तबीयत ठीक नहीं है या कोई सामान घर भूल कर आई हो कुछ तो बताओ , क्या हुआ है ?"

पिताजी के एक साथ इतने सारे प्रश्नों को सुन कर वह खुद को संभाल न पाई और फफक- फफककर रोते हुए कहने लगी " पापा मेरी बहुत सारी सहेलियों ने सैंट जेविएर कॉलेज में दाखिला ले लिया है जबकि मै तो पढ़ने में उनसे काफी आगे थी और मैं डी. ए.वी कॉलेज में . मुझे इस बात का डर है कि मैं आपके सपनों को साकार कर पाऊँगी क्या ? कई मेरी कक्षा के विद्यार्थी तो इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में चले गए हैं . क्या आपकी मेरिट होल्डर बेटी के नसीब में ये सब नहीं था क्या !

मानो उसने पिताजी की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. एक दार्शनिक की भांति पिताजी उसे सांत्वना देने लगे " प्रतीक्षा तुम तो जानती हो कि तुम्हारे कमजोर स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ही नजदीक के कॉलेज में तुम्हारा दाखिला करवाया है ., मैं पूर्णतया आश्वस्त हूँ कि यहाँ भी पढाई करके तुम अपनी मंजिल पा सकती हो. करम करने पर ध्यान दो , फल तुम्हारी झोली में खुद- ब-खुद आकर गिर जाएगा , और कॉलेज से कोई फर्क नहीं पड़ता, पढाई तो खुद ही करनी पड़ती है . पिताजी के नेत्रों में छलकते प्रेम को देख कर प्रतीक्षा का रोना और बढ गया . सिसकते-सिसकते आँसुओं की धारा गालों के ऊपर सर्पिल-नदी की भांति बहते हुए मुँह तथा गले की तरफ जा रही थी. उसने अपना रुमाल निकाला और आंसू पोंछ के शांत होने का प्रयास किया . लेकिन मन तो मन ही था . एक बार जिस विषय पर केन्द्रित हो गया तो वहाँ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. रह-रहकर उसे मेरिट की लिस्ट याद आ रही थी और परिजनों की उससे लगी उम्मीदें याद आ रही थी. वह इतनी भावुक हो गई कि एक एक कर बचपन के दोस्तों के चेहरे याद आने लगे .

जो दोस्त उसे डॉक्टर या इंजिनियर के रूप में देखना चाहते थे , उनकी कही बातें उसके मानस पटल पर बार- बार आ जा रही थी, वे कहते थे कि प्रतीक्षा तुम्हारे लिए तो बाएँ हाथ का खेल है डॉक्टर या इंजिनियर बनना . उसकी भी बचपन से हार्दिक इच्छा रही थी कि जिन्दगी में कुछ मुकाम हासिल करे , यह बात और थी कि पिताजी ने कभी उस पर अपनी इच्छा का दबाब नही डाला था ,वह तो उसकी लगन के मुताबिक ही चाहते थे , कि उनकी बेटी उच्च प्रशासनिक अधकारी बने तांकि उनका सिर सम्मान से ऊँचा उठ सके. जैसे- जैसे उसको बीते समय की यादें गहराने लगी, वैसे- वैसे फिर से उसकी आँखें नम होने लगी, वह कुछ ज्यादा ही सवेंदनशील थी, हर छोटी-सी बात पर भावुक हो जाती थी. जितना प्रयास करती बीती बातों को भूलने का, उतना ही रह-रह कर उसके सामने आ रही थी' बीती ताहि विसार दे आगे की सुधि ले '. आगे की सोच अभी निर्णायक स्तर तक नहीं पहुँच पा रही थी. बार- बार मन में एक ही ख्याल की पुनरावृति हो रही थी कि कैसे सब की उम्मीदों पर खरा उतरे, कैसे वह सब को इतना सुख दे कि सब का सीना फक्र से चौड़ा हो जाए .

इन्हीं सबके बीच सोचते- सोचते वह फिर से अतीत में खो गई . प्रतीक्षा के जीवन में जिस तरह उतार-चढ़ाव आए थे, बचपन से शायद इसीलिए वह ज्यादा भावुक होती गई. बचपन से ही वह मीठा खाने की कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थी. जब वह पाँचवी कक्षा में ही थी सिर्फ कि उसके दाँत में दर्द शुरू हो गया अचानक. जरा-सा पानी लगने पर भी वह दर्द से कुलबुला उठती. उस दिन उसके दांत का दर्द कुछ ज्यादा ही बढ गया . उस दिन पिताजी भी कहीं बाहर गए थे और माँ घर के काम काज में व्यस्त थी. माँ ने कहा " प्रतीक्षा,ऐसे कोई दर्द ठीक हो जाएगा क्या , जाओ और दीदी के साथ जाकर सदर अस्पताल में दिखा आओ, डॉक्टर दवाई दे देगा और दर्द झट से ठीक भी हो जाएगा.जब मैं कहती थी कि प्रतीक्षा मीठी चोकलेट कम खाया करो, तब तो कहना मानती नहीं थी."
वह डॉक्टर के पास जाने से बहुत घबरा रही थी और रोते रोते कहने लगी " माँ अगर डॉक्टर ने दांत को निकाल दिया तो ." माँ ने कहा " तुम तो अभी छोटी हो इतनी जल्दी डॉक्टर दांत थोड़े ही निकालेगा "

माँ ने रसोई घर में जाते-जाते कहा .माँ की इन बातों से कुछ तसल्ली पाकर वह अपनी बड़ी बहिन अनुराधा के साथ सदर अस्पताल के लिए चल पड़ी. वहाँ जाकर उसने देखा कि पहले से ही लम्बी- कतार लगी है मरीजों की. काफी समय इन्तजार करने के बाद उसकी बारी आई तो डॉक्टर ने उसका दाँत चेक किया और बोला कि दाँत तो पूरी तरह सड़ चुका है." तब क्या करना होगा डॉक्टर साहिब" , दीदी ने आशंकित स्वर में डॉक्टर से पूछा .यही एक तरीका बचा है कि इन्फेक्टेड दाँत को निकाल देना चाहिए नहीं तो पायरिया होने का डर है. मेडिकल विज्ञान की ये बातें न उसको समझ आ रही थी न उसकी बड़ी बहिन को . कुछ समय सोचने के बाद दीदी ने प्रतीक्षा की तरफ देखते हुए उसकी दाड़ निकालने की अनुमति दे दी. डॉक्टर ने प्रतीक्षा को मुँह खोल कर रखने को कहा और सुन्न करने वाला इंजेक्शन उसकी दाड़ में लगा दिया. डॉक्टर ने कहा कि इससे दाँत सुन्न हो जाएगा और फिर दाँत निकालने में दर्द नहीं होगा और बाहर की तरफ इशारा करते हुए कुछ देर इन्तजार करने को कहा.प्रतीक्षा चुपचाप बाहर बेंच पर जाकर बैठ गई और अपनी बारी का इन्तजार करने लगी .उसके चेहरे पर मासूमियत झलक रही थी. जैसे-जैसे दाँत सुन्न हो रहा था वह रुआंसी हो रही थी और कुछ घबराहट भी हो रही थी .बड़ी बहिन पास बैठी उसे हिम्मत देने की कोशिश कर रही थी." प्रतीक्षा कुछ नहीं होगा, घबराओ मत, आज कल तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है और इतने बड़े से बड़ा ऑपरेशन बड़ी आसानी से हो जाता है और यह तो एक दांत निकालने की बात है सिर्फ. और तुम तो अभी छोटी हो और यह तो दुधिया दाँत है वापिस फिर से आ जाएगा.मौसी के बारे में तो जानती ही हो कि उन्हें कैंसर हुआ था और ऑपरेशन के बाद ठीक है बिलकुल".

अनुराधा के इतने लम्बे-चौड़े भाषण को वह क्या समझ पाती .दीदी की आँखों को देख कर वह समझ गई कि उसे कोई खतरा नहीं है. सहमति जताने के लिए उसने अपना सिर हिला दिया .वह पहले भी घर में बातचीत के दौरान रिश्तेदारों के ऑपरेशन के बारे में सुन चुकी थी .किसी को स्तन कैंसर था तो किसी को गठिया , लेकिन ऑपरेशन के बाद ये बीमारी दूर हो गई थी.
काफी समय बीत गया था पर उनकी बारी नहीं आई थी. डॉक्टर काफी भीड़ होने के कारण दूसरे मरीजों को /देख रहा था . आधा-घंटा लगभग बीत गया था .धीरे-धीरे उसकी निश्चेतन हुई दाड़ में फिर से दर्द- सा होना लगा और चेतना का ऐहसास फिर से होने लगा. जब तक उसकी बारी आई तब तक टीके का असर लगभग ख़त्म ही हो गया था, पर उसे इतनी समझ थोडा ही थी. वह डॉक्टर को क्या बताती और कैसे बताती. डॉक्टर ने उसे एक विशेष-सी कुर्सी पर आराम से बैठने को कहा और लाइट उसकी तरफ घुमा दी और कहा "अच्छा अब मुँह पूरी तरह खोलो, बस एक मिनट लगेगा.”

यह कहते हुए एक तरह के ख़ास औजार से उसकी दाड़ जड़ से निकाल दी . प्रतीक्षा की चीख निकल गई , डॉक्टर ने डाँटते हुए कहा चिल्लाने की क्या बात है , और दाँत में से खून बहने लगा. ,वह दर्द से बिलबिला रही थी , उसकी यह हालत देखकर उसकी बहिन अनुराधा भी घबरा गई . डॉक्टर साहिब ये क्या, उसके दाँत से तो बहुत खून निकल रहा है .डॉक्टर ने कहा कि घबराने की बात नहीं है और यह कहकर डॉक्टर ने एक बड़ा सा रुई का फ़ौआ उसके दाँत की जगह ठूंस दिया, इसे निकालना मत्त और जल्द ही खून रुक जाएगा. डॉक्टर की थोड़ी सी असावधानी की वजह से आस पास के दांत भी खराब होने शुरू हो गए और उनकी जड़ो में भी इन्फैक्शन फ़ैल गया और मर्ज ठीक होने की बजाय बढता ही गया .प्रतीक्षा के कई दांतों में संक्रमण फ़ैल गया .और उन दांतों को भी निकालने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था . खान-पान की असुविधा होने के कारण उसका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ता ही गया. एक दो दांत ऊपर के जबड़े से भी निकल जाने के कारण उसकी आँखों की रोशनी भी कम होती गई दिन पर दिन. कक्षा में बोर्ड पर लिखे हुए अक्षर पढ़ने में उसको काफी दिक्कत आने लगी . और छठी कक्षा में ही एक मोटा-सा चश्मा उसकी आँखों पर लग गया .इस चश्मे की वजह से सब उसे चश्मिश कहकर पुकारने लगे और वह मन ही मन अवसाद ग्रस्त होती गई ..ढूध के दांत निकलवाने के बाद वापिस आ गए मगर उसका गिरता स्वास्थ्य , अवसाद ग्रस्त चेहरा तथा आँखों पर लगे मोटे चश्मे ने उसकी सुन्दरता को इस तरह छुपा दिया था मानो किसी काले बादल ने दैदीप्यमान सूरज को ढक लिया हो .अपनी सुन्दरता को खोता देखकर वह दिन- प्रतिदिन हीन-भावना की शिकार होती गई.न तो वह अब ज्यादा किसी से बात करती और न किसी को ख़ास मिलना पसंद करती .वह सबसे कटी-कटी रहने लगी.अगर घर पर कोई भी रिश्तेदार या कोई मित्र आता है तो वह छुप जाती थी .अब उसके पास एक ही लक्ष्य था केवल पढाई और पढाई .सारा दिन किताबों में लीन रहना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था.इतनी बीमारियाँ छोटी उम्र में और ऊपर से कुछ ज्यादा परिश्रम करने के कारण उसकी प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होने लगी और देखते- देखते वह तपेदिक जैसी भयानक बीमारी की चपेट में आ गई. उसको हर समय बुखार रहने लगा और खांसी के साथ बलगम में खून आने लगा .पहले वह बड़ी बहिन के साथ सोया करती थी परन्तु अब माता-पिता ने उसका बिस्तर अलग लगा दिया और बाकी हर रोज इस्तेमाल होने वाला सामान भी सब अलग कर दिया और इस वजह से उसे पहले जैसा प्यार भी नहीं मिल पा रहा था.पिताजी ने उसे हिदायत देते हुए कहा " बेटी खांसते वक़्त मुह पर रुमाल रख लिया करो , यह बीमारी एक संक्रमित आदमी से घर के बाकी सदस्यों को भी हो सकती है खांसी के द्वारा और दूसरे सामानों के इस्तेमाल से भी इस बीमारी के कीटाणु दूसरों तक आसानी से पहुँच सकते हैं अतः बेहतर यही है की तुम अलग कमरे में और अलग बिस्तर पर सोया करो".

पिताजी की ये बातें सुन कर प्रतीक्षा को ऐसा लगा मानो उस पर वज्रपात हुआ हो.इस छूआ-छूत की बीमारी के बारे में बताते-बताते पिताजी दुखी हो गए और उसे सदर अस्पताल के जाने माने डॉक्टर के पास ले गए.डॉक्टर ने बड़ी बारीकी से उसकी बीमारी की जांच-पड़ताल की और दो महीने की एंटीबायोटिक मेडीसिन दी और साथ में चालीस पेंसिलिन के इंजेक्शन भी दिए.दवाइयाँ इतनी कडवी थी और पेंसिलिन की सुइयों का तो कहना ही क्या ! इतने दर्द भरे थे कि बैठते नहीं बनता था.हर रोज का एक इंजेक्शन था जिसे लगातार लगवाना पड़ता था और न चाहते हुए भी वह इस असहनीय दर्द को सहने को मजबूर थी और इतना सब झेलने के बाद वह मानसिक और भावनात्मक तौर पर कमजोर पड़ती जा रही थी.मगर घर वाले हैरान थे और उसके साहस की दाद देते थे कि कैसे प्रतीक्षा ने इतनी छोटी उम्र में भी अपनी बीमारी के साथ लम्बी लड़ाई लड़ी .धीरे-धीरे वह ठीक होती गई और इसकी वजह से वह अपने स्वास्थ्य के लिए काफी सचेत रहने लगी क्योंकि शंका उसके मन के कोने में घर कर गई थी. एकाग्रता के अभाव में नौवी कक्षा में उसको काफी कम अंक प्राप्त हुए. कम अंको की वजह से उसे काफी दुःख लगा और खुद को असहाय महसूस करने लगी.फिर उसे नर्सरी कक्षा में पढाई गई कहानी "राजा और मकड़ी "याद आ गई ,और उसने अपनी आंतरिक शक्ति को एकत्रित करते हुए दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत करना शुरू किया दसवीं कक्षा की परीक्षा के लिए.
आखिरकार अपना नाम दसवी के बोर्ड की परीक्षा की मेरिट-लिस्ट में अंकित करवाकर न केवल अपनी बुद्धिमता का और साहस का परिचय दिया बल्कि अपने पिता के गौरव को भी अक्षुण रखा. सही भी था कि पूत के पाँव पालने में ही पहचाने जाते है . उसकी गौरवमयी सफलता को देख कर पिताजी प्रतीक्षा के प्रशासनिक अधिकारी बनने का दिवा -सपना देखने लगे.और उसकी आगे की पढाई के लिए योजना बनाने लगे. पिताजी ने प्रतीक्षा का मार्गदर्शन किया कि प्रशासनिक अधिकारी बनने के लिए दो सालों तक यानी बारहवीं तक वह साइंस के विषय पढ़ ले तांकि उसका सामान्य-ज्ञान अच्छा हो जाए और उसकी दिनचर्या भी अच्छी बनी रहे .फिर उसके बाद आर्ट्स के विषय लेकर मेन पेपर के लिए अच्छे से दो विषय तैयार कर ले . इस तरह उसके पिता जी ने मन ही मन पूरी योजना हर बात की बना ली.वह मन ही मन सोच रहे थे की उनके खानदान में आज तक कोई भी इतने ऊँचे पद पर आसीन नहीं हुआ है और जब प्रतीक्षा इस पद पर होगी तो उनका सिर फक्र से सबकी नजरों में कितना ऊँचा हो जाएगा .
तभी बस कंडक्टर ने बस रोकी और कहने लगा कि डी ए वी कॉलेज का स्टॉप आ गया है, यहाँ वाले सब उतर जाएँ , तभी प्रतीक्षा ने सामने देखा अपने नए कॉलेज के बड़े से गेट को ..
प्रतीक्षा को उठता देखकर पिताजी ने उसकी तरफ इस तरह देखा मानो अपने अरमानों की चिट्ठी उस तक पहुँचाना चाहते हो.पिता जी प्रतीक्षा की तरफ देख कर कहने लगे जाओ बेटी अपने अरमानों को हासिल करो " वह अपनी अतीत की यादों के थपेड़ो से बाहर निकल कर जिन्दगी के रंगीन सपनो को सार्थक करने के लिए कॉलेज के बड़े से गेट में प्रवेश करने लगी.क्या वह अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य को बेध पाएगी उसे लग रहा था उसको ही क्यों इतना सब संघर्ष झेलना पड़ा ?


24 comments:

  1. sammaniya alka ji me sahitya parishad se juda hu. apki krati bahut acchi lagi. aap chandigarh me sahitya praishad se jud sakti he

    ReplyDelete
  2. u r a real writer, poet and philospher, keep going towards from thia manzil to next manzil ji.

    ReplyDelete
  3. ek behtreen prastuti.......jo pariksha mein baithata hai aur adamya sahas jismein ho wo hi safal hota hai .

    ReplyDelete
  4. bahut achhi kahani hai alka ji ap bahut hi age jengi kabita or kahani k dunia me.

    ReplyDelete
  5. bahut hi sundar aur marmik Alka ji

    ReplyDelete
  6. pratiksha ke man ka dwand aaj ghar ghar ki kahani hai,sadhno ka abhav bahut si akakshao ko tod deta hai,achhi abhivyakti hai aap ki badhai

    ReplyDelete
  7. बहुत संवेदनशील कहानी है जिस तरह विचारों की यादों की कशमकश को पिरोया है उससे लगता है आन खुद की पात्र हो जीवन्त, कथानक, सहज सरल भाषा ।
    for emotion's visit blog Emotion's http://swastikachunmun.blogspot.com

    ReplyDelete
  8. कहानी बहुत संवेदनशील है मन को छू लेने वाली है !
    आप सच मे कलम के जादूगर हैं !

    हार्दिक शुभकामनायें

    ReplyDelete
  9. बॉल एवं किशोर मान की उलजनों को आज दिन तक कुछ ही अभिभावक समाज पाए हैं...
    और वह बालक या किशोर तो जानते ही नहीं उन प्रश्नों के उत्तर जो उनके मान में उठते हैं...
    बहुत ही अच्छे तरीके से आपने उस किशोर मन मे झाँका है...

    ReplyDelete
  10. di apne jo likha acha likha h.per aise Maa Pita baut kum hote hain wo bus yahi samajte hain ki bacha paida karna hi Maa Baap banne k jisa hota h. per aisa h ni jab wo kud hi nahi jante to apne bachon m kya samskar daalte...sahi aur galat ki paichan honi chaiye.

    ReplyDelete
  11. कहानी का कथानक यथार्थ से जुड़ा हुआ है .इस कहानी को पढने पर मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आती है
    " मंजिले अपनी जगह ,रास्ते अपनी जगह ;फिर कदम साथ न दें तो मुसाफिर क्या करें ?".
    नवोदित लेखिका को इस श्रेष्ठ सृजन के लिए बहुत-बहुत बधाई तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ !

    ReplyDelete
  12. सभी मित्रों और शुभचिंतको का बहुत बहुत धन्यवाद अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए

    ReplyDelete
  13. हृषिकेश मुख़र्जी ,कोलकता11 February 2010 at 2:54 pm

    बहुत ही संवेदनशील कहानी आपने पेश की है .यह कहानी मेरे दिल को छू गई . वास्तव में मेरे साथ भी ऐसे ही कुछ हालत आये जिन्होंने मुझे अपनी मंजिल पाने से रोक दिया . बस अब अपनी तकदीर को कोसता हूँ ,या फिर कभी इस स्लोगन को याद करता हूँ किसीको भी भाग्य से ज्यादा नहीं मिला है और नहीं मिलेगा. अलका जी अपनी कहानियों को जारी रखियेगा ,मुझे आपकी कहानियों से बड़ी संतुष्टि मिलती है .भगवान् करें आप साहित्यगगन में सूरज बनकर चमके .
    हृषिकेश मुख़र्जी ,कोलकता

    ReplyDelete
  14. मेरी शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  15. बढ़िया, दुरूह जीवन के सहज आत्मसात होने वाले किस्से जिनसे ज़िन्दगी बुनी जाती है.

    ReplyDelete
  16. really heart touching story this is..........

    bahut achhe se samvednao ko piroya hai aapne...
    hamari bahut bahut shubhkamnaye apko..aap isi tarah maa veenavadini ke aasheesh se sahitya ka srejan karti rahe....

    ReplyDelete
  17. Very Very well ..... Adrniya alka ji , now this time of you are real wirter ...now its time we need reals wirter .. jo ..realty ko apne sabdo me likh sake ...

    Golbless You ..

    ReplyDelete
  18. ise main pahle padh chuka tha....magar tippini nahin de paya tha...mujhe bhi atyant acchhi lagi thi aapki ye kahaani....aapka behad abhar...!!

    ReplyDelete
  19. Alkajee, After a long time, I came through your creations. It is really touchy. It is really great to be a creative writer with such story.

    ReplyDelete
  20. अलका जी, अच्‍छी कहानी है। बधाई

    ReplyDelete
  21. Its awesome....keep up the good work alka ji...i really appreciate it

    ReplyDelete
  22. Bohot achi stories hai...................U r really a creater...........

    ReplyDelete
  23. It was pleasant to go through short stories and poems written by Alka Saini based on factual events taking place almost every now & then in our personal life living far &.She has written very well in simple Hindi that could be very well understood by all living far & wide. Alka, though young in age but much matured in her thoughts. No doubt, one day. She will prove her worth as an eminent writer as author & poet both provided she keeps on continuing to write more & more on many varied subjects of national importance. I wish her all success and commend her works for valuable contribution to our societies.

    ReplyDelete