सन्नाटा
प्यार न सही कभी गुस्सा ही किया करो.........
मनुहार न सही गिला ही किया करो...........
अब तो बीत गए जमाने
यूँ मौन रहकर
संग गाये हुए तराने
इकरार न सही कभी इनकार ही किया करो .........
इजहार न सही तकरार ही किया करो ............
याद है तुम्हे वो शुरू- शुरू की उमंगें
वो बेताबियाँ
सीने में उमड़ती तरंगें
सच न सही कभी झूठ ही कहा करो ............
फोन न सही मिस्ड काल ही किया करो ............
घंटों भरी सर्दी में
कंप्यूटर स्क्रीन पर नजरें गड़ाएं बैठना
कुर्सी पर सब की नजरों से बचाकर
कम्बल को चारों तरफ लपेटना
उफ़ वो दिसम्बर की ठिठुरन
भी गर्मी दे जाती थी
मुलाकात न सही कभी मेसेज ही किया करो .........
जीवन न सही जान ही लिया करो ..................
तो अब क्या प्रेम नहीं रहा
कहीं ख़त्म हो गएँ है या गुम हो गएँ है
वो शरारतें ,वो अठखेलियाँ
अब शब्द क्या बेमानी हो गए हैं
कसम न सही कभी रस्म ही निभाया करो ..............
वफादारी न सही दुनियादारी ही निभाया करो .............
कुछ भी तो नहीं बदला
या फिर सब कुछ बदल गया है
न रुत बदली है न मौसम बदला
पर न तुम बदल सकते हो न मैं
फिर क्यूँ पसरा है सब ओर "सन्नाटा "