मरुभूमि
मैं बंझर रेगिस्तान की धरती
गर्भ में मेरे सूरज की गर्मी
भीतर अनगिनत बीज है लहुलुहान
मीलों तक छाई है खामोशी
तपती धूप में छाया को तरसी
मेघ टूट कर ना मुझ पर पर बरसे
नदी, नाले, खेत सब छूटे हैं पीछे
कई मुसाफिर रास्ते से हैं भटके
हृदय पर मेरे बिछे हैं कांटे
कीट पतंगे डेरा लगाए हैं बैठे
मुझे बाँझ ना पुकारो !
कई मौसम मुझसे होकर गुजर गए
ना कोई सावन मन को बहलाए
ना ही तूफानों का डर सताए
चांदनी रातों में ना पल भर को रोई
अँधेरी रातों में भी ना जी भर कर सोई
ओह मेघ
कब आओगे ?
कब मेरी प्यास बुझाओगे?
कब हरियाली बरसाओगे ?
कब से आसमान की ओर
गड़ाए बैठी हूँ नजरें
कब से अखियाँ तरस रही
बिन नमी के ही बरस रही
ओह मेघ
कब प्रेम की नदिया बहाओगे ?
कब स्नेह के फूल खिलाओगे ?
कब मेरी ममता का मौल चुकाओगे ?
मुझ से यूँ मुँह ना मोड़ो
मेरे सूने दिल को यूँ ना तोड़ो
मेरा हृदय कब से विरानो
में भटक रहा है
कब से तुम्हारे स्नेहिल
स्पर्श को तरस रहा है !
सीने में मेरे भी है अमृत की नर्मी
हृदय में है प्यार का बीज स्फूटित
वक्ष में मेरे भी है दूध की चर्भी
आँचल में है ममता की धूप खिली
मै बाँझ नहीं, मै माँ हूँ !
मै बाँझ नहीं, मै माँ हूँ !
MARUBHOOMI KI GATJHA KO BEHTREEN LAFJO SE NAVAJA HAI ALKAJI.....BEMISAL
ReplyDeletewell done alka ji,
ReplyDeleteSuperb Alka ji wish you may long live & we all take your gift.
ReplyDeleteमेरा प्रियकर मेघ नहीं सूरज है.
ReplyDeleteदिन भर मेरे सीने से चिपका रहता है.
रात को भी चाँद क्र रूप में
मेरी सेज सजाता है
This is another wonderful, interestng, heart touching and exciting poem of Mrs. Alka Saini, Zirakpur. May I expect that some more such types of healthy reading material will come from her in 2011 in order to fulfill the desire of her serious readers like like me.
ReplyDeleteMaruBhumi is realy great ...................
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